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________________ गुणस्थानों में जीवस्थान आदि की प्ररूपणा ४१५ उपर्युक्त अल्प बहुत्व के विपरीत भी हो जाता है। उदाहरणार्थ-कभी ग्यारहवें गुणस्थान वाले बारहवें गुणस्थान वालों से अधिक भी हो जाते हैं। अतः उपर्युक्त अल्पबहुत्व सभी गुणस्थानों में जीवों के उत्कृष्ट संख्यक पाये जाने के समय ही घटित हो सकता है। (११) गुणस्थानों में पांच भावों की प्ररूपणा औपशमिक आदि पांच या छह भावों पर विस्तृत रूप से हमने 'औपशमिक पांच भावों से मोक्ष की ओर प्रस्थान' शीर्षक निबन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला है। कर्मों के साथ इन पांच भावों का काफी घनिष्ठ सम्बन्ध है। कर्मग्रन्थ में पांचों भावों का कर्म के साथ सम्बन्ध बताते हुए कहा गया है कि औपशमिक भाव मोहनीय कर्म के ही होता है। मिश्र (क्षायोपशमिक) भाव चार घातिकर्मों का ही होता है। शेष तीन (क्षायिक, पारिणामिक और औदयिक) भाव आठों कर्मों के होते हैं। धर्मास्तिकाय आदि अजीवद्रव्य के पारिणामिक भाव हैं, किन्तु पुद्गल-स्कन्ध के औदयिक और पारिणामिक ये दो भाव हैं। कर्म के सम्बन्ध में औपशमिक आदि भावों का मतलब है-उसकी अवस्था विशेषों से। जैसे-कर्म की उपशम-अवस्था औपशमिक भाव है, क्षयोपशम-अवस्था क्षायोपशमिक भाव है, क्षय-अवस्था क्षायिक भाव है, उदय-अवस्था औदयिक भाव है और परिणमन-अवस्था पारिणामिक' भाव है। • आशय यह है कि उपशम-अवस्था मोहनीय कर्म के सिवाय अन्य कर्मों की नहीं होती। इसलिए औपशमिक भाव मोहनीय कर्म का ही कहा गया है। क्षयोपशम चार घातिकर्मों का ही होता है। इस कारण क्षयोपशम भाव घातिकर्म का ही माना गया है। विशेषता इतनी है कि केवलज्ञानावरणीय और केवलदर्शनावरणीय, इन दो घातिकर्म-प्रकृतियों के विपाकोदय का निरोध न होने के कारण इनका क्षयोपशम नहीं होता। क्षायिक, औदयिक और पारिणामिक; ये तीनों भाव आठों कर्मों के हैं, क्योंकि क्षय, उदय और परिणमन, ये तीन अवस्थाएँ आठों ही कर्मों की होती हैं। निष्कर्ष यह है कि मोहनीय कर्म के पांचों भाव, मोहनीय के सिवाय चार घातिकर्म के चार भाव और चार अघातिकर्म के तीन भाव हैं। १. पारिणामिक शब्द का यह एक अर्थ है-स्वरूप-परिणमन, जो सब द्रव्यों में लागू होता है। जैसे-कर्म का जीवप्रदेशों के साथ विशिष्ट सम्बन्ध होना या द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदि भिन्न-भिन्न निमित्त पाकर अनेक रूप में संक्रान्त होते रहना (परिवर्तित होते रहना) कर्म का पारिणामिक भाव है। जीव का परिणमन जीवत्व भाव में या भव्यत्व या अभव्यत्वरूप में स्वतः बने रहना है। इसी तरह धर्मास्तिकायादि द्रव्यों में भी समझ लें। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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