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४१४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
हजार करोड़ तक पाये जाते हैं। देशविरति, सासादन, मिश्र और अविरत-सम्यग्दृष्टि गुणस्थान वाले जीव पूर्व-पूर्व से असंख्यातगुणे हैं। वह इसलिए हैं कि असंख्यात तिर्यञ्च गर्भज भी देशविरति नामक पंचम गुणस्थान वाले जीव छठे गुणस्थान वालों से असंख्यातगुणे हो जाते हैं। देशविरतिगुणस्थान वालों से द्वितीय (सास्वादन) गुणस्थान वाले जीव असंख्यातगुमे कहे गए हैं। इसका कारण यह है कि देशविरति तिर्यञ्च और मनुष्य दो गतियों में ही होती है, जबकि सास्वादन सम्यक्त्व चारों गतियों में होता है। परन्तु सास्वादन सम्यक्त्व गुणस्थान की अपेक्षा मिश्रदृष्टि गुणस्थान का कालमान असंख्यातगुण अधिक है। यही कारण है कि सास्वादन सम्यक्त्व गुणस्थान वालों की अपेक्षा मिश्रदृष्टि वाले असंख्यातगुणे अधिक हैं। चौथा अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान चारों गतियों में सदैव पाया जाता है और उसका कालमान भी बहुत अधिक है। इसलिए चौथे गुणस्थान वाले तीसरे गुणस्थान वालों से असंख्यातगुणे हैं। यद्यपि भवस्थ अयोगी केवली क्षपक श्रेणि वालों के बराबर दशपृथकत्व-प्रमाण ही हैं। तथापि अभवस्थ अयोगिकेवली (सिद्ध परमात्मा) अनन्त हैं। इसी कारण अयोगि केवली जीव चौथे गुणस्थान वालों से अनन्तगुणे कहे गए हैं। किन्तु साधारण वनस्पतिकायिक जीव सिद्धों से भी अनन्तगुणे हैं और वे सब मिथ्यादृष्टि हैं। इसलिए प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान वाले चौदहवें गुणस्थान वालों से अनन्तगुण हैं।
- अल्पबहुत्व : उत्कृष्ट संख्या पर आधारित निष्कर्ष यह है कि पहला, चौथा, पाँचवाँ, छठा, सातवां और तेरहवाँ, ये ६ गुणस्थान लोक में सदैव पाये जाते हैं। शेष आठ गुणस्थान कभी नहीं भी पाये जाते हैं, तब भी उनमें वर्तमान जीवों की संख्या कभी जघन्य और कभी उत्कृष्ट रहती है। ऊपर कहा हुआ अल्पबहुत्व उत्कृष्ट संख्या की अपेक्षा से समझना चाहिए, जघन्य संख्या की अपेक्षा से नहीं। क्योंकि जघन्य-संख्या के समय जीवों का प्रमाण
१. (क) ................................अजोगि थोव उवसंता।
संखगुण खीण सुहुमाऽनियट्टी अपुव्व सम अहिया॥६२ ।। (ख) जोगि-अपमत्त इयरे, संखगुणा देस-सासणामीसा।
· अविरय अजोगिमिच्छा, असंख चउरो दुवे णंता॥६३॥ -चतुर्थ कर्मग्रन्थ (ग) चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा० ६२-६३ विवेचन (पं० सुखलाल), पृ० १९२ से १९५ तक २. (क) चतुर्थ कर्मग्रन्थ, गा० ६२-६३ विवेचन , पृ० १९२ से १९५ तक
(ख) इस विषय की प्ररूपणा पंचसंग्रह द्वार २, गा० ८०-८१ में है। (ग) गोम्मटसार जीवकाण्ड गा० ६२२ से ६२८ तक में भी इसका कथन भिन्नरूप से
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