SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 438
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ तथा तीन वेदों के सिवाय उक्त दस में से शेष ४; ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में संज्वलन लोभ को छोड़कर शेष ३, और चौदहवें गुणस्थान में शुक्ललेश्या के सिवाय तीन में से मनुष्यगति और असिद्धत्व ये दो औदयिक भाव हैं। . (३) क्षायिक भाव-पहले तीन गुणस्थानों में क्षायिक भाव नहीं हैं। चौथे से ग्यारहवें तक आठ गुणस्थानों में सम्यक्त्व; बारहवें में सम्यक्त्व और चारित्र, ये दो और तेरहवें-चौदहवें दो गुणस्थानों में क्षायिक भाव है। (४) औपशमिक भाव-पहले के तीन और बारहवें आदि तीन, इन छह गुणस्थानों में औपशमिक भाव नहीं है। चौथे से आठवें तक पांच गुणस्थानों में सम्यक्त्व और नौवें से ग्यारहवें तक तीन गुणस्थानों में सम्यक्त्व और चारित्र, ये दो औपशमिक भाव हैं। (५) पारिणामिक भाव-पहले गुणस्थानों में जीवत्व आदि तीनों, दूसरे से बारहवें गुणस्थान तक ग्यारह गुणस्थानों में जीवत्व और भव्यत्व; और तेरहवें और चौदहवें में जीवत्व ही पारिणामिक भाव है। भव्यत्व अनादि सान्त है, क्योंकि सिद्ध अवस्था में उसका अभाव हो जाता है। घातिकर्मों का क्षय होने के बाद सिद्धावस्था प्राप्त करने में अधिक विलम्ब नहीं लगता, इसलिए पूर्वाचार्यों में तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान में भव्यत्व नहीं माना है। एक जीवाश्रित भावों के उत्तरभेदों की प्ररूपणा इसी प्रकार एक जीवाश्रित भावों के उत्तरभेद की प्ररूपणा यों है-(१) क्षायोपशमिक पहले दो गुणस्थानों में मति-श्रुत दो, या विभंग-सहित तीन अज्ञान, अचक्षु एक या चक्षु-अचक्षु दो दर्शन, दान आदि ५ लब्धियाँ; तीसरे में दो या तीन ज्ञान, दो या तीन दर्शन, मिश्रदृष्टि, पांच लब्धियाँ। चौथे में दो या तीन ज्ञान, अपर्याप्तावस्था में एक अचक्षु या अवधि सहित दो दर्शन, और पर्याप्तावस्था में दो या तीन दर्शन, सम्यक्त्व और पांच लब्धियाँ। पांचवें में दो या तीन ज्ञान, दो या तीन दर्शन, सम्यक्त्व, देशविरति, पांच लब्धियाँ। छठे-सातवें में दो, तीन या मनःपर्याय पर्यन्त ४ ज्ञान, दो या तीन दर्शन, सम्यक्त्व, चारित्र (सर्वविरति), पांच लब्धियाँ। आठवें, नौवें और दसवें में सम्यक्त्व को छोड़कर छठे-सातवें गुणस्थान वाले समस्त क्षायोपशमिक भाव। ग्यारहवें-बारहवें में चारित्र को छोड़कर दसवें गुणस्थान वाले सभी भाव। (२) औदयिक-पहले गुणस्थान में अज्ञान, असिद्धत्व, एक लेश्या, एक कषाय, एक गति, एक वेद, और मिथ्यात्व। दूसरे में मिथ्यात्व को छोड़कर पहले गुणस्थान वाले सभी औदयिक भाव भेद। तीसरे, चौथे, पांचवें में अज्ञान को छोड़ दूसरे वाले सब। छठे से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy