________________
३९८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ योग, तथा उत्पत्ति के प्रथम समय के अनन्तर अपर्याप्त अवस्था में दो योग, चार मन के, चार वचन के और एक औदारिक तथा एक वैक्रिय; ये दस योग पर्याप्त-अवस्था में। आहारक और आहारक-मिश्र ये दो योग चारित्र-सापेक्ष होने से उक्त तीन गुणस्थानों में नहीं होते। आठवें से लेकर बारहवें गुणस्थान तक पांच गुणस्थानों में छह योग नहीं होते, क्योंकि ये गुणस्थान विग्रहगति और अपर्याप्त अवस्था में नहीं पाये जाते। अतएव इनमें कार्मण और औदारिक मिश्र, ये दो योग नहीं होते। तथा ये दोनों गुणस्थान अप्रमत्त-अवस्थाभावी हैं। अतएव इनमें प्रमादजन्य लब्धि प्रयोग न .. होने के कारण वैक्रिय-द्विक और आहारक-द्विक, ये चार योग भी नहीं होते।
तीसरे गुणस्थान में आहारकद्विक, औदारिकमिश्र, वैक्रियमिश्र और कार्मण, इन पांच योगों के सिवाय शेष दस योग होते हैं। आहारक काययोग और आहारकमिश्र काययोग, ये दो संयम-सापेक्ष होने के कारण इस गुणस्थान में नहीं होते। तथा औदारिकमिश्र आदि तीन योग अपर्याप्त-अवस्थाभावी होने के कारण इसमें नहीं होते, क्योंकि अपर्याप्त-अवस्था में तीसरा गुणस्थान सम्भव ही नहीं है।
पांचवें देशविरति गुणस्थान में पूर्वोक्त नौ योग तथा वैक्रियद्विक, ये सब मिलकर ग्यारह योग होते हैं। देशविरति गुणस्थान वाले मनुष्य व तिर्यञ्च, जो वैक्रियलब्धि सम्पन्न होते हैं, वे वैक्रिय शरीर बनाते हैं। इसलिए उनमें वैक्रिय और वैक्रियमिश्र, ये दो योग अधिक होते हैं। चार मन के, चार वचन के और एक औदारिक, ये ९ योग तो मनुष्य-तिर्यञ्च के लिए साधारण हैं। अतः पंचम गुणस्थान में कुल ९+२-११ योग समझने चाहिए। उसमें सर्वविरति न होने के कारण आहारक और आहारक मिश्र, तथा अपर्याप्त अवस्था न होने के कारण कार्मण और औदारिकर्मिश्र, ये दो , यों कुल ४ नहीं पाये जाते।
छठे गुणस्थान (प्रमत्तसंयत) में देशविरति-गुणस्थान-सम्बन्धी ९ योग (४ मन के, ४ वचन के, और एक औदारिक काय) सब मुनियों के साधारण होते हैं, इनके अतिरिक्त वैक्रिय-द्विक और आहारक-द्विक, ये चार योग वैक्रिय शरीर तथा आहारक शरीर बनाने वाले तल्लब्धिधारी मुनियों के ही होते हैं। वैक्रियमिश्र और आहारक मिश्र, ये दो योग तभी पाये जाते है, जब वे वैक्रिय शरीर और आहारक शरीर का प्रारम्भ और परित्याग करते है, उस समय उनकी प्रमाद-अवस्था होती है।
सातवाँ अप्रमत्त-संयत गुणस्थान अप्रमत्त-अवस्थाभावी होने के कारण उसमें छठे गुणस्थान में उक्त १३ योगों में से उक्त दो योगों (वैक्रियमिश्र और आहारक मिश्र) को छोड़कर शेष ११ योग माने गए हैं। वैक्रिय शरीर या आहारक शरीर बना लेने पर भी अप्रमत्त-अवस्था सम्भव है। इसलिए अप्रमत्त-संयत-गुणस्थान के योगों में वैक्रियकाययोग और आहारककाययोग की गणना है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org