SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 417
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुणस्थानों में जीवस्थान आदि की प्ररूपणा ३९७ (१) गुणस्थानों में जीवस्थान की प्ररूपणा मिथ्यात्व गुणस्थान में सभी (१४) जीवस्थान होते हैं। पाँच अपर्याप्त और संज्ञीद्विक मिलकर सात जीवस्थान सास्वादन गुणस्थान में हैं। अविरतिसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में दो प्रकार के संज्ञी जीवस्थान हैं और शेष रहे गुणस्थानों में संज्ञीपर्याप्त जीवस्थान हैं। पहले गुणस्थान में सभी (चौदह ही) जीवस्थान होते हैं, क्योंकि एकेन्द्रियादि सभी प्रकार के संसारी जीव मिथ्यात्व में पाये जाते हैं। दूसरे सास्वादन गुणस्थान में सात जीवस्थान इस प्रकार बताये गए हैं-(१) बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, (२) द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, (३) त्रीन्द्रिय अपर्याप्त, (४) चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, (५) असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, (६) संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त तथा (७) संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त। यहाँ अपर्याप्त का अर्थ करण-अपर्याप्त समझना चाहिए, लब्धि अपर्याप्त नहीं। चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और संज्ञिपंचेन्द्रिय पर्याप्त, ये दो जीवस्थान हैं। यहाँ भी अपर्याप्त का अर्थ-करण अपर्याप्त है। इन तीन गुणस्थानों (मिथ्यात्व, सास्वादन और अविरत-सम्यक्त्व) के सिवाय शेष ग्यारह गुणस्थानों में सिर्फ संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त यह एक ही जीवस्थान होता है। संज्ञी पर्याप्त के सिवाय अन्य किसी प्रकार के जीवों में ऐसे परिणाम नहीं होते हैं, जो पूर्वोक्त तीन गुणस्थानों को छोड़कर शेष ग्यारह गुणस्थानों (मिश्रदृष्टि तथा देशविरति से लेकर अयोगिकेवली तक को प्राप्त कर सकें। (२) गुणस्थानों में योगों की प्ररूपणा पहले, दूसरे और चौथे गुणस्थान में आहारक-द्विक (आहारक और आहारक मिश्र इन.दो योगों) को छोड़कर तेरह योग हैं, वे इस प्रकार हैं- कार्मणयोग, विग्रहगति में, तथा उत्पत्ति के प्रथम समय में वैक्रियमिश्र और औदारिक मिश्र ये दो १. (क) सव्वजियठाण मिच्छे सग सासणि पण अपज्ज अन्निदुर्ग। सम्मे सन्न दुविहो, सेसेसुं सन्नि-पज्जत्तो॥४५॥ -कर्मग्रन्थ भा. ४ (ख) कर्मग्रन्थ भाग ४, गा. ४५भावार्थ (पं० सुखलाल जी), पृ० १६७, १६८ (ग) गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गा. ६९८ में २, ६, १३वें गुणस्थान में अपर्याप्त और पर्याप्त संज्ञी ये दो जीवस्थान माने हैं। (घ) तेरहवें गुणस्थान के स्वामी सयोगि केवली को योग की अपूर्णता की अपेक्षा से अपर्याप्त कहा है। -गोम्मटसार (जीवकाण्ड) १२५ गा० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy