SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 416
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ ज्ञानी - ज्ञान- दर्शन - चारित्र आदि जीव का स्वभाव और स्थान - उनकी तरतमता से प्रकट हुए स्वरूप - विशेष को गुणस्थान कहते हैं। गुणस्थान : मोहकर्म की न्यूनाधिकताएँ गुणों की शुद्धि - अशुद्धि की तरतमता के मापक ये स्वरूप - विशेष ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों की शुद्धि और अशुद्धि के तरतमभाव से होते हैं। गुणों की शुद्धि और अशुद्धि में तरतमता या न्यूनाधिकता होने का मुख्य कारण मोहनीय कर्म का उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि हैं। जब. प्रतिरोधक कर्म कम हो जाता है, तब ज्ञानदर्शनादि गुणों की शुद्धि अधिक प्रकट हो जाती है, और जब प्रतिरोधक कर्म की अधिकता होती है तब ज्ञानादि गुणों की शुद्धि कम होती है। आत्मिक गुणों के इस न्यूनाधिक क्रमिक विकास की अवस्था को गुणस्थानक्रम कहते हैं। तात्पर्य यह है कि (गोम्मटसार के अनुसार) 'दर्शन - मोहनीय आदि कर्मों की उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्था के होने पर होने वाले जिन परिणामों से युक्त जो जीव परिलक्षित होते हैं, उन जीवों को सर्वज्ञ - सर्वदर्शी भगवन्तों ने उसी गुणस्थान वाले और उन भावों (अध्यवसायों= परिणामों) को गुणस्थान कहा है। '२ गुणस्थानों में जीवस्थान आदि प्ररूपणीय विषय गुणस्थानों के १४ भेद एवं उनके लक्षण, कार्य, स्थिति आदि का विवेचन इससे पूर्व के निबन्धों में कर आए हैं । १४ गुणस्थानों में जीवस्थान आदि प्ररूपणीय विषय ये हैं- (१) जीवस्थान, (२) योग, (३) उपयोग, (४) लेश्या, (५) बन्धहेतु, (६) बन्ध, (७) उदय, (८) उदीरणा, (९) सत्ता, (१०) अल्प - बहुत्व, (११) भाव और (१२) संख्यात आदि संख्या । ३ १. . (क) पंचसंग्रह भा. १, ( मरुधर केसरी जी), पृ० १३० - १३१ (ख) कर्मग्रन्थ भा. २ ( मरुधरकेसरीजी) पृ० ६ (ग) तत्र गुणाः - ज्ञानदर्शनचारित्ररूपा जीव - स्वभाव - विशेषाः, स्थानं पुनरत्र तेषां शुद्ध्यशुद्धि-प्रकर्षाऽपकर्षकृतः स्वरूपभेदः तिष्ठन्त्यस्मिन् गुणा इति कृत्वा यथाऽध्यवसायस्थानमिति गुणानां स्थानं गुणस्थानम् । - कर्मस्तव (गोविन्दगणि वृत्ति) पृ० २ गोम्मटसार जीवकाण्ड गा. ८ (घ) जेहिं दुलक्खिज्जंते उदयादिसु संभवेहिं भावेहिं । जीवा ते गुणसण्णा णिद्दिट्ठा सव्वदरिसीहिं ॥ २. गोम्मटसार जीवकाण्ड गा. ८ का भावार्थ ३. चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा. ४५ विवेचन ( मरुधरकेसरीजी), पृ० २६६ For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy