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गुणस्थानों में जीवस्थान आदि की प्ररूपणा ३९९ .. तेरहवें सयोगीकेवली गुणस्थान में कार्मण, औदारिकद्विक, सत्यमनोयोग, असत्यामृषमनोयोग, सत्यवचनयोग तथा असत्यामष-वचनयोग, ये ७ योग होते हैं। चूँकि सयोगीकेवली को केवलि-समुद्घात के समय कार्मण और औदारिकमिश्र, ये दो योग होते हैं, अन्य सब समय में औदारिककाय योग होता है, तथा अनुत्तरविमानवासी देव आदि के प्रश्न का मन से उत्तर देते समय दो मनोयोग और देशना देते समय दो वचनयोग होते हैं। इस प्रकार तेरहवें गुणस्थान में सात योग माने गए
___ केवलज्ञानी भगवान् योगों का निरोध करके जब अयोगि-अवस्था प्राप्त कर लेते हैं, तब एक भी योग उनमें नहीं पाया जाता, क्योंकि चौदहवें अयोगिकेवलिगुणस्थान में योगों का सर्वथा अभाव है।
(३) गुणस्थानों में उपयोगों की प्ररूपणा - प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान और द्वितीय सासादन गुणस्थान में सम्यक्त्व का अभाव होने से सम्यक्त्व के सहचारी पांच ज्ञान, अवधिदर्शन, और केवलदर्शन, इन ७ उपयोगों को छोड़कर शेष तीन अज्ञान और दो दर्शन, ये पांच उपयोग होते हैं।
चतुर्थ अविरति सम्यग्दृष्टि और पंचम देशविरति, इन दो गुणस्थानों में मिथ्यात्व न होने से तीन अज्ञान और सर्वविरति न होने से मनःपर्यायज्ञान तथा घातिकर्मों का अभाव न होने से केवलद्विक (केवलज्ञान-केवलदर्शन), ये कुल ६ उपयोग नहीं होते, शेष ६ उपयोग (तीन ज्ञान और तीन दर्शन आदि के) होते हैं।
तीसरे मिश्रदृष्टि गुणस्थान में भी पूर्वोक्त तीन ज्ञान और तीन दर्शन, ये ही ६ उपयोग होते हैं। परन्तु दृष्टि मिश्रित (शुद्ध-अशुद्ध-उभयरूप) होने से ज्ञान अज्ञानमिश्रित होता है। छठे से बारहवें (प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणमोहनीय) गुणस्थान तक सात गुणस्थानों में पूर्वोक्त ६ और मनःपर्यायज्ञान, ये सात उपयोग हैं। इन ७ गुणस्थानों में मिथ्यात्व न होने के कारण अज्ञानत्रिक नहीं है और घातिकर्म का
१. (क) मिच्छदुग अजइ जोगाहार दुगुणा अपुव्व-पणगे उ।
मणवइ उरलं सविउव्व मीसि सविउव्व-दुग देसे॥ ४६॥ साहारदुग पमत्ते, ते विउव्वाहार-मीस विणु इयरे। . कम्मुरलदुगंताइस-मण-वयण संजोगि न अजोगि॥४७॥ -कर्मग्रन्थ भा. ४ (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ, गा० ४६, ४७ विवेचन (पं० सुखलाल जी), पृ० १६३ से १६६
(ग) पंचसंग्रह द्वार १ गा० १६-१७ में भी इसी प्रकार योगों की प्ररूपणा है। - (घ) गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गा० ७०३ में पांचवें और सातवें गुणस्थान में नौ और
छठे गुणस्थान में ११ योग माने हैं।
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