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________________ गाढ़ बन्धन से पूर्ण मुक्ति तक के चौदह सोपान ३४७ मोक्ष-प्रासाद पर पहुँचने के चौदह सोपान : चौदह गुणस्थान इसे एक अन्य दृष्टिकोण से समझिए। गुणस्थान आध्यात्मिक उत्क्रान्ति के चौदह सोपान हैं। दूसरे शब्दों में-मोक्षरूपी प्रासाद पर पहुँचने के लिए ये चौदह सोपान (सीढ़ियाँ) हैं। पहली सीढ़ी से जीव चढ़ने लगते हैं, कोई धीरे-धीरे और कोई जल्दी-जल्दी यथाशक्ति आगे बढ़ने का प्रयत्न करते हैं। कोई-कोई व्यक्ति सोपानों पर चढ़ते-चढ़ते ध्यान न रखने से नीचे गिर जाते हैं, और गिरते-गिरते पहले सोपान पर भी आ जाते हैं। सिद्धान्तानुसार ग्यारहवें सोपान पर पहुँचे हुए जीव भी मोह का प्रबल धक्का लगने से नीचे गिर जाते हैं। इसलिए ऊर्ध्वारोहण करने (ऊपर चढ़ने) वाले जीव तनिक भी प्रमाद न करें, ऐसी चेतावनी उत्तराध्ययन आदि शास्त्रों में बारबार दी गई है। बारहवें सोपान पर पहुँचने के बाद तो गिरने का किसी प्रकार का खतरा या भय नहीं रहता। इतना ही नहीं, आठ-नौ सोपान पर मोह का क्षय प्रारम्भ हुआ अथवा वहीं से क्षपकश्रेणी का दौर चला तो फिर गिरने का भय सर्वथा मिट जाता है। निष्कर्ष यह है कि ग्यारहवें गुणस्थान पर पहुँचे हुए. जीव के नीचे गिरने का कारण यह है कि उसने मोह का उपशम किया है, क्षय नहीं। मगर आठवें-नौवें गुणस्थान में मोह के उपशम के बदले यदि क्षय की प्रक्रिया प्रारम्भ की जाय तो निःसन्देह नीचे गिरना असम्भव हो जाता है। गुणस्थानों की क्रमिक अवस्थाएं मोहकर्म की प्रबलता निर्बलता पर आधारित ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय, ये चार घातिकर्म आत्मा के गुणों का घात, ह्रास, विकृत एवं कुण्ठित करने वाले हैं। यानी ये चारों आत्मा की ज्ञान, दर्शन, सुख और शक्ति (वीर्य) की शक्तियों को आच्छादित करने वाले आवरण हैं। परन्तु इन चारों प्रकार के आवरणों में मोहनीय कर्म का आवरण प्रबल और मुख्य है। जब तक मोहकर्म का आवरण प्रबल और तीव्र रहता है, तब तक अन्य सभी आवरण बलवान् और तीव्र बने रहते हैं। इसके विपरीत मोहकर्म के निर्बल होते ही अन्य कर्मों के आवरण भी निर्बल और नष्ट हो जाते हैं। अर्थात्-मोहकर्म के आवरण की तीव्रता और मन्दता पर अन्य कर्मों के आवरण की तीव्रता और मन्दता अवलम्बित है। इसलिए गुणस्थानों की क्रमिक अवस्थाएँ मोहकर्म की आवरणशक्ति की उत्कटता, मध्यम अवस्था, मन्दता एवं अभाव पर ही आधारित हैं। अर्थात् १. जैन दर्शन (न्या. न्या. न्यायविजय जी), पृ. १०४-१०५ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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