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________________ ३४८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ आत्मगुणों के विकास में मुख्य बाधक मोह की प्रबलता और मुख्य सहायक मोह की निर्बलता है। गुणस्थानों का आधार मोहकर्म की प्रधान शक्तियाँ दो हैं-दर्शनमोह और चारित्रमोह। इनमें से प्रथम शक्ति आत्मा को दर्शन, अर्थात्-स्वरूप-पररूप का निर्णय, अथवा जड़ (अजीव) और चेतन का भेद-विज्ञान (पृथक्करण का विवेक) नहीं होने देती, और दूसरी शक्ति आत्मा को पूर्वोक्त विवेक प्राप्त कर लेने पर भी तदनुसार प्रवृत्ति (आचरण) नहीं करने देती; अध्यात्म दृष्टि से कहें तो परभावों-विभावों से छूट कर स्वभाव (स्वरूप) में रमणता या स्थिरता नहीं होने देती। व्यावहारिक जगत् में भी पद-पद पर यही देखा जाता है कि वस्तु का यथार्थ दर्शन-बोध कर लेने पर ही उस वस्तु को. पाने या त्यागने की चेष्टा की जाती है और वही प्रयत्न सफल होता है। आध्यात्मिक विकास-गामी आत्मा के लिये भी ये ही दो मुख्य कार्य हैं-(१) स्वरूप-दर्शन या भेदज्ञान करना और (२) तदनुसार आचरण अर्थात्-स्वरूप में स्थित होना। इन दोनों शक्तियों में स्वरूप-बोध को न होने देने वाली शक्ति को दर्शन-मोह और स्वरूप में स्थित न होने देने वाली शक्ति को चारित्र-मोह कहते हैं। तात्पर्य यह हैदर्शनमोहनीय के उदय से आत्मा तत्वों का यथार्थ श्रद्धान नहीं कर पाता। उसका चिन्तन, विचार, विवेक और दर्शन (दृष्टि) दर्शनमोह के कारण सम्यक् और स्पष्ट नहीं हो पाता और चारित्रमोहनीय के उदय से पूर्वोक्त विवेकयुक्त श्रद्धान के अनुसार विवेकयुक्त आचरण में प्रवृत्ति नहीं हो पाती। सिद्धान्तानुसार दूसरी (चारित्रमोह की) शक्ति प्रथम (दर्शनमोह की) शक्ति की अनुगामिनी होती है। अर्थात प्रथम शक्ति प्रबल हो तो दूसरी शक्ति कदापि निर्बल नहीं होती। इसके विपरीत पहली शक्ति के निर्बल होते ही-अर्थात्-क्रमशः मन्द, मन्दतर और मन्दतम होते ही दूसरी शक्ति भी क्रमशः वैसी होने लगती है। यों भी कह सकते हैं कि एक बार आत्मा स्वरूप दर्शन कर पाए तो फिर उसके लिए स्वरूप में उत्तरोत्तर स्थिर-स्थिरतर और स्थिरतम होने का मार्ग खुल जाता है। निष्कर्ष यह है कि दर्शनमोहनीय कर्म के उदय के कारण न ही सम्यग्दर्शन होता है, और न सम्यक्चारित्र ही। अर्थात्-सम्यग्दर्शन के होने पर ज्ञान सम्यक् होता है और चारित्र भी। उसके न होने पर ज्ञान और चारित्र दोनों सम्यक् नहीं होते, वे मिथ्या ही रहते हैं, दर्शन तो मिथ्या रहता ही है। गोम्मटसार (क.) के अनुसार आदि के चार गुणस्थान मुख्यतया दर्शनमोहनीय के उदय आदि से १. (क) कर्मग्रन्थ भा. ४ प्रस्तावना (पं० सुखलाल जी), पृ. ११ (ख) जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ. १४३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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