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३४२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ आत्मा की किस अवस्था में किन कर्मों का बन्ध, सत्ता (सत्त्व), उदय, उदीरणा और संक्रमण आदि होता है।
गुणस्थान से अनन्त संसारी जीवों की बन्धादि योग्यता नापी जा सकती है संसारी जीव अनन्त हैं। अतः किसी एक जीव के आधार से उन सब जीवों की बन्धादि से सम्बन्धित योग्यता, क्षमता और अवस्था, या आत्मा के निजी स्वाभाविक गुणों की स्थिति का दिग्दर्शन कराया जाना असम्भव है। इसके अतिरिक्त एक जीव की भी कर्मबन्धादि से सम्बन्धित योग्यता, क्षमता या अवस्था सदैव एक-सरीखी नहीं रहती, क्योंकि जीव के परिणाम, अध्यवसाय या भावों (विचारों) के प्रतिक्षण बदलते रहने के कारण उसकी बन्धादि-सम्बन्धी योग्यता, क्षमता या अवस्था प्रतिसमय बदलती रहती है। इसीलिए कर्मसिद्धान्त में कहा है कि प्रत्येक संसारी जीव के प्रतिसमय ७ या ८ कर्म बंधते हैं। यही कारण है कि कर्मविज्ञानप्ररूपक अध्यात्म ज्ञानियों ने संसारी जीवों की अन्तरंग-शुद्धिजन्य उत्क्रान्ति तथा अशुद्धिजन्य अपक्रान्ति के आधार पर उनको १४ भागों में वर्गीकृत किया। इसी क्रमपूर्वक वर्गीकरण को जैन कर्मविज्ञान की भाषा में 'गुणस्थान क्रम' नाम दिया गया।
गुणस्थान-क्रम से जीव की आन्तरिक शुद्धि-अशुद्धि की नाप जोख गुणस्थान का यह क्रम इस प्रकार से वैज्ञानिक ढंग पर आयोजित है कि गुणस्थान के उन १४ वर्गीकृत विभागों में एकेन्द्रिय से लेकर समस्त पंचेन्द्रिय जीवों यहाँ तक कि मोक्ष जाने की योग्यता वाले जीवन्मुक्त पुरुषों तक का समावेश हो जाता है। साथ ही उनकी बन्धादि से सम्बन्धित योग्यता को नापने का यह थर्मामीटर है। गुणस्थानों पर से प्रत्येक जीव की बन्धादि-सम्बद्ध योग्यता, क्षमता एवं अवस्था को बताना बहुत ही आसान हो जाता है। एक जीव की योग्यता एवं अवस्था भी प्रतिसमय बदला करती है, उसका भी निरूपण किसी न किसी गुणस्थान विभाग द्वारा किया जा सकता है। तात्पर्य यह है कि इन गुणस्थानों का क्रम संसारी जीवों की
आन्तरिक शुद्धि के तरतम भाव के मनोविश्लेषणात्मक परीक्षण द्वारा सिद्ध करके निर्धारित किया गया है। इस पर से यह बताना और समझना आसान हो जाता है कि अमुक प्रकार की आन्तरिक शुद्धि या अशुद्धि से युक्त जीव इतनी कर्म-प्रकृतियों के
१. आत्मत्त्व विचार, पृ० ४४५ २. (क) कर्मग्रन्थ भा. २ विवेचन प्रस्तावना (मरुधरकेसरी), पृ. २४
(ख) कर्मग्रन्थ भा. ४ प्रस्तावना (पं० सुखलाल जी), पृ. १०
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