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________________ गाढ़ बन्धन से पूर्ण मुक्ति तक के चौदह सोपान ३४१ गुणस्थान क्रमारोहण कठिन है, पर असंभव नहीं भौतिक दृष्टि से जैसे पर्वतारोहण अत्यन्त कठिन कार्य प्रतीत होता है, वैसे ही आध्यात्मिक दृष्टि से गुणस्थानारोहण इससे भी कई गणा कठिन है। पर्वतारोहण जैसे अति कठिन कार्य में भी कई साहसी व्यक्ति सफल हो जाते हैं, वैसे ही मिथ्यात्वयुक्त गाढ़बन्ध जैसे प्रथम गुणस्थान से लेकर सर्वकर्मों से मुक्ति दिलाने वाले अन्तिम १४ वें गुणस्थान के शिखर पर भी धैर्यवान् और साहसी वीतराग-यथाख्यातचारित्रात्मा व्यक्ति आरोहण करने में सफल हो सकते हैं। दूसरे शब्दों में, बंध को क्रमशः शिथिल और अल्पावधिक करते हुए वे महान् आत्मा एक दिन मुक्ति के सर्वोच्च शिखर-आत्मा के अन्तिम साध्य को प्राप्त कर सकते हैं। गुणस्थान क्या है, क्या नहीं? गुणस्थान पर्वत की तरह कोई स्थान-विशेष नहीं है, न ही वह कोई भौगोलिक स्थान है, न वह धर्मस्थान है, और न कोई राजस्थान जैसा कोई प्रान्त है, अपितु आत्मा के गुणों-ज्ञान, दर्शन-चारित्रादि आत्मगुणों के स्थान अर्थात्-उनकी क्रमिक अवस्थाएँ हैं। अतः गुणस्थान का अर्थ हुआ-आत्मगुणों के विकास की विविध अवस्थाएँ। शुद्ध निरंजन निराकार आत्मा को शैलेशी अवस्था तक क्रमशः पहुँचने के क्रमशः विकास के कारण। आत्मा के गाढ़बन्ध से क्रमशः आगे बढ़ते-बढ़ते सर्वोच्च शिखर (सिद्धि गति नामक स्थान-सिद्धालय) पर पहुँचने का यह सोपानक्रम है। कर्म से सम्बद्ध होने से गुणस्थान क्रम को जानना आवश्यक जैसे व्यापार का अर्थशास्त्र से, राज्यशासन का राजनीति से, औषध का वैद्यकशास्त्र से तथा ध्यान का योग साधना के साथ प्रगाढ़ सम्बन्ध है, वैसे ही गुणस्थान का कर्म के साथ गाढ़ सम्बन्ध है। आगे चलकर यह बताया जाएगा कि किंस गुणस्थान में कितनी और कौन-कौन-सी कर्म-प्रकृतियों का बन्ध होता है?, कितनी प्रकृतियाँ सत्ता में रहती हैं?, कितनी और कौन-सी प्रकृतियाँ उदय में आती हैं और कितनी कर्म-प्रकृतियों की उदीरणा हो सकती है? इसके अतिरिक्त गुणस्थान से आत्मा के आध्यात्मिक विकास की तरतमता का नापजोख हो सकता है, और उस पर से यह भी मालूम हो जाता है, कि इस गुणस्थान में रहा हुआ जीव कितने कर्मों का बन्ध करता है और उक्त कर्मों से वह कैसे और किन कारणों से बंधा है और कैसे और किन उपायों से छूट कर उच्च-उच्चतर-उच्चतम गुणस्थान की श्रेणी पर चढ़ सकता है? गुणस्थान का यह सोपानक्रम जान लेने पर आप जान सकते हैं कि . १. आत्मतत्त्व विचार से भावांश ग्रहण, पृ. ४४४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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