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________________ मोह से मोक्ष तक की यात्रा की १४ मंजिलें ३३९ को कर्मनिर्जरा में जितना समय लगता है, उसकी अपेक्षा विरताविरत श्रावक को संख्यातगुणा कम समय लगता है। इसी प्रकार विरत आदि आगे-आगे की अवस्थाओं के विषय में समझ लेना चाहिए। चौदह गुणस्थानों में शाश्वत-अशाश्वत कौन? पूर्वोक्त चौदह गुणस्थानों में से पहला, चौथा, छठा और तेरहवाँ, ये ५ गुणस्थान लोक में शाश्वत हैं, शेष नौ गुणस्थान अशाश्वत हैं। परभव में जाते समय १, २ और ४ गुणस्थान र हते हैं। तीन गुणस्थानों में जीव का मरण नहीं होता-३, १२ और १३ ये अमर हैं। १, २, ३, ५ और ११ इन पांच गुणस्थानों को तीर्थकर नहीं स्पर्शते; इनके अतिरिक्त १,४,७,८, ९, १०, १२, १३, १४ इन नौ गुणस्थानों को मोक्ष जाने से पहले जीव अवश्य स्पर्श करता है। ४, ५, ६, ७ और ८ वाँ, इन ५ गुणस्थानों में ही तीर्थंकर नाम गोत्र का बन्ध होता है। १२, १३ और १४ ये तीन गुणस्थान अप्रतिपाती हैं। कर्मविज्ञान में इस प्रकार चतुर्दश गुणस्थानों के स्वरूप का विभिन्न पहलुओं से प्रतिपादन किया गया है। मुमुक्षु साधक कर्मबन्ध को उत्तरोत्तर न्यून करता हुआ सर्वकर्ममुक्त अवस्था तक पहुँचे, यही जैन कर्मविज्ञान का उद्देश्य है। १. (क) बन्ध हेत्वभाव-निर्जराभ्याम्। (ख) कर्मग्रन्थ भा. २ (मरुधरकेसरी), पृ. ४७-४८ -- (ग) सम्यग्दृष्टि श्रावक-विरतानन्तवियोजक दर्शनमोह- क्षपकोपशमकोपशान्त मोह-क्षपक-क्षीणमोह-जिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः। -तत्त्वार्थ सूत्र ९/४७ (घ) सम्मात्तुप्पत्तीये सावय-विरदे अणंतकम्मंसे ।। दंसण-मोहक्खवगे कसाय-उवसामगे व उवसंते ॥ .. खवगे य खीणमोहे जिणेसु दव्वा असंख-गुणिद-कमा । तव्विवरीया काला संखेज गुणक्कमा होंति ॥ -गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गा. ६६, ६७ २. (क) कर्मग्रन्थ भा. २ विवेचन (मरुधरकेसरी जी), पृ. ४८, ४९ (ख) प्रवचनसारोद्धार द्वार २२४ गा. १३०२, तथा वही, द्वार ८९-९० गा. ६९४, ७०८ (ग) चौदह गुणस्थान का थोकड़ा (अगरचंद भैरोंदान सेठिया, बीकानेर). Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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