SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ बहिरात्मा, (२) भद्रात्मा, (३) अन्तरात्मा, (४) सदात्मा, (५) महात्मा, (६) योगात्मा और (७) परमात्मा । १ गाढ़ कर्मबन्ध से घातकर्ममुक्ति तक संवर और निर्जरा से विकास निष्कर्ष यह है कि कर्मबन्ध के हेतुओं के अभाव से तथा निर्जरा से कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होता है और कर्मबन्ध का सर्वथा क्षय होना ही मोक्ष है। यद्यपि संसारी जीवों के नवीन कर्मों का बन्ध तथा पूर्वबद्ध कर्मों की कुछ अंशों में निर्जरा होती रहने से पूर्णतया मोक्ष नहीं हो पाता । किन्तु गुणस्थानों के उत्तरोत्तर आरोहण में कर्मों की निर्जरा के साथ-साथ, कर्मबन्ध एवं उसके मुख्य हेतुओं का क्रमशः. होते जाने से जीव कर्ममुक्ति तथा आत्मस्वरूप की उपलब्धि की ओर बढ़ता हुआ क्रमशः अनन्तज्ञानादि चतुष्टय रूप आत्मस्वरूप को पूर्णत: प्राप्त कर लेता है। अभाव चतुर्थ गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक उत्तरोत्तर असंख्य गुणी निर्जरा वस्तुतः कर्मों की निर्जरा सम्यक्त्व (चतुर्थ गुणस्थानं) से प्रारम्भ होकर वीतरागता और सर्वकर्ममुक्तिरूप चौदहवें गुणस्थान में पूर्ण होती है। बीच के गुणस्थानों में क्रमश: पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर परिणामों में विशुद्धि बढ़ती जाती है । परिणामों में जितनी - जितनी विशुद्धि बढ़ती है, उतनी उतनी कर्मनिर्जरा भी विशेष होती है। आशय यह है कि पूर्व - पूर्व के गुणस्थानों में जितनी कर्मनिर्जरा होती है, आगे-आगे के गुणस्थानों में परिणामों की विशुद्धि अधिकाधिक होने से असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा बढ़ती जाती है। और इस प्रकार बढ़ते-बढ़ते अन्तिम दो गुणस्थानों में निर्जरा का प्रमाण सर्वाधिक हो जाता है। तत्त्वार्थ सूत्रकार के शब्दों में'सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्तानुबन्धी- वियोजक, दर्शनमोहक्षपक, मोहोपशमक, उपशान्तमोह, क्षपक, क्षीण - मोह और जिन, ' इन दस अवस्थाओं में क्रमशः उत्तरोत्तर असंख्येयगुणी निर्जरा होती है । २ उत्तरोत्तर निर्जरा करने में कम समय लगता है एक बात और, इन दस गुणस्थानों में पूर्व-पूर्व गुणस्थानों की अपेक्षा आगे-आगे गुणस्थानों में कर्म - निर्जरा में संख्यातगुणा कम समय लगता है। जैसे - सम्यग्दृष्टि १. (क) जैनदर्शन न्या (न्या न्या., न्यायविजयजी), पृ. १३२ (ख) भद्रात्मा - मार्गानुसारी शुक्लपक्षी, (ग) अन्तरात्मा - सम्यग्दृष्टि प्राप्त होते ही, (घ) सदात्मा - सदाचरणसम्पन्न, (ङ) महात्मा - महाव्रतधारीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy