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________________ मोह से मोक्ष तक की यात्रा की १४ मंजिलें ३३५ योगनिरोध करते ही हैं। योगनिरोध से लेश्या का तथा सातावेदनीय रूप बन्ध का नाश होता है । (१४) अयोगीकेवली गुणस्थान : स्वरूप, कार्य और अधिकारी सयोगीकेवली भगवान् जब मन, वचन और काया के योगों का सर्वथा निरोध कर लेते हैं, यानी योगरहित हो जाते हैं, तब वे अयोगी - केवली कहलाते हैं। उनके स्वरूप - विशेष या अवस्था - विशेष को अयोगिकेवली गुणस्थान कहते हैं। जिसके सूक्ष्म या बादर (स्थूल) किसी भी प्रकार का मन-वचन-काया का योग (व्यापार या प्रवृत्ति) नहीं होता है, उसे 'धवला' में अयोग- केवली कहा गया है। यह गुणस्थान आत्मा के स्वभाव या स्वरूप में पूर्णरूप से अवस्थिति का, आत्मा के पूर्ण विकास का या चारित्र विकास की चरम अवस्था का द्योतक है। गोम्मटसार टीका में कहा गया है-घातिकर्मों का अभाव तो तेरहवें गुणस्थान में हो जाता है, परन्तु इस गुणस्थान में शेष रहे चार अघातिकर्मों का भी क्षय हो जाता है। आत्मा का स्वाभाविक रूप इस गुणस्थान में प्रकाशित होने लगता है। इसी ग्रन्थ में कहा गया है - जिसे अष्टादश सहस्र शील (शीलांग-रथ) का स्वामित्व - आधिपत्य या ऐश्वर्यत्व सम्प्राप्त हो चुका है, (मानसिक, वाचिक और कायिक समस्त व्यापारों का सर्वथा निरोध करने के कारण) जिसके कर्मों के आगमन का आस्रव रूपी द्वार पूर्णरूप से बन्द (अवरुद्ध) हो गया है, अर्थात्-जो पूर्ण संवर से सम्पन्न हैं; तप आदि के द्वारा अथवा शुक्लध्यान के चतुर्थ पाद के द्वारा समस्त कर्मों की निर्जरा (क्षय) हो चुकती है, ऐसा योगरहित केवली अयोग-केवली कहलाता है । २ अयोगकेवली द्वारा योगनिरोध का क्रम इस प्रकार है - त्रिविध योग बादर और सूक्ष्म दोनों प्रकार के होते हैं । उनमें से प्रथम वे बादर काययोग द्वारा बादर मनो-योग १. (क) चौद गुणस्थान, पृ. १४८, १४९ (ख) जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ. १६९ २. . (क) कर्मग्रन्थ भा. २ विवेचन ( मरुधरकेसरी) पृ. ४३ (ख) न विद्यते योगो यस्य स भवत्ययोगः, केवलमस्यास्तीति केवली । अयोगश्चासौ केवली च अयोग- केवली । - धवला १/१/१ सृ. २२ (ग) गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) मन्दप्रबोधिनी टीका, गा. ६५ (घ) वही, जीव प्रबोधिनी टी. गा. १० (ङ) सीलेसिं संपत्तो निरुद्ध-णिस्सेस-आसओ जीवो। -विप्पमुक्को गयजोगो केवली होदि ॥ कम्मरय-1 Jain Education International - गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गा. ६५ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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