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३३४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
सयोगीकेवली के वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र, इस चार अघातिकर्मों का क्षय करना बाकी रहता है। इस गुणस्थान में आत्मा पूर्ण वीतरागता प्राप्त कर लेता है। इसलिए वह अघातीकर्मों के फल को सहज और समभाव से भोगता है। इस गुणस्थान की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्टतः देशोन (कुछ कम-आठ वर्ष कम ) करोड़ पूर्व की होती है । १
इस गुणस्थानवर्ती जीव को इस गुणस्थान के काल में एक अन्तर्मुहूर्त समय अवशिष्ट रहने पर सर्व अघातिकर्मों का क्षय करने के लिए योग-निरोध करना होता है। परन्तु उससे पूर्व यदि आयुकर्म की स्थिति कम और शेष तीन अघातिकर्मों की स्थिति अधिक रहती है तो उनकी स्थिति में समीकरण के लिए यानी अघातिकर्मों में तरतमता हो तो उसे दूर करने के लिए केवली - समुद्घात' नामक क्रिया होती है। जिस प्रकार गीले वस्त्र को फैलाने से उसकी आर्द्रता कम हो जाती है, उसी प्रकार मूल शरीर को छोड़े बिना ही अपने आत्मप्रदेशों को बाहर निकालने - फैलाने से उनमें संसक्त कर्म-प्रदेशों की स्थिति तथा अनुभागांश क्षीण होकर आयु-प्रमाण हो जाते हैं। अर्थात् वेदनीय, नाम और गोत्ररूप तीन अघातिकर्मों की स्थिति आयुष्य की स्थिति के समान कर देने की क्रिया या प्रयत्न को (केवली) समुद्घात कहते हैं। इसमें ८ समय लगते हैं। चार समय में केवली शरीर को विस्तृत करते हैं, शेष चार समय में उसे पुन: समेटते हैं। पहले समय में आत्मा मोटाई द्वारा शरीर प्रमाण और लम्बाई में १४ रज्जू प्रमाण लम्बा दण्डाकार आत्मप्रदेश फैलाते हैं, दूसरे समय में उन्हीं फैले हुए आत्म- प्रदेशों को पूर्व-पश्चिम तथा उत्तर-दक्षिण दिशा में फैलाकर आत्मप्रदेश कपाट रूप बनते हैं। तीसरे समय में बाकी रही हुई दो दिशाओं में लोकपर्यन्त आत्मप्रदेश फैला कर मथानी रूप बनते हैं। चौथे समय में विदिशाओं में आत्मप्रदेशों को पूर्ण करके समग्र लोकाकाश में व्याप्त हो जाते हैं। फिर शेष चार समयों में इनसे उलटी क्रिया ( व्युत्क्रम से) होती है। जिससे आत्म प्रदेश पुनः क्रमशः संकुचित होते हुए पहले के आकारों को धारण करते हुए मूल शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार केवलि - समुद्घात करते हैं। जिन केवलियों के ४ अघातिकर्मों की स्थिति समान होती है, वे समुद्घात नहीं करते, किन्तु अन्तर्मुहूर्त भर आयु शेष रहते वे सब
१. (क) आत्मतत्व विचार, पृ. ४९६
(ख) जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ. १६८
२. समुद्घात का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ - सम-चारों अघाति कर्मों की स्थिति को सम-समान करने के लिए अथवा पुनः घात न करना पड़े, इस रीति से उत्- प्रबलता से या अधिकता से, घात-वेदनीयादि कर्मों का घात नाश करना समुद्घात है। -संपादक
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