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मोह से मोक्ष तक की यात्रा की १४ मंजिलें ३३३ केवली परमात्मा भी कहते हैं। इस गुणस्थानी की तुलना हम वैदिकदर्शनोक्त 'जीवन्मुक्त' से भी कर सकते हैं। केवली भगवान् मनोयोग का उपयोग किसी को मन से उत्तर देने में करते हैं। भगवती सूत्र में बताया गया है कि जब कोई मनःपर्यायज्ञानी या अनुत्तरविमानवासी देव सयोगकेवली भगवान् से शब्द द्वारा न पूछ कर मन द्वारा प्रश्न आदि पूछता है, तब वे मन से ही उसके प्रश्न का उत्तर देते हैं। प्रश्नकर्ता सयोग-केवली भगवान् द्वारा संगठित किये मनोद्रव्यों को अपने मनःपर्यायज्ञान अथवा अवधिज्ञान से प्रत्यक्ष कर लेता है, और उनकी रचना के अनुसार अपने प्रश्न का उत्तर अनुमान से जान लेता है। इस गुणस्थानवर्ती केवली चाहे विशेष (तीर्थंकरादि) हो चाहे सामान्य, गाँव-गाँव में विचरण, आहार-विहार, निहार, भिक्षाचरी आदि समस्त क्रियाएँ काययोग से करते हैं तथा प्रवचन व उपदेश देने, बोलने, प्रश्न का उत्तर देने आदि के लिए वचनयोग का उपयोग करते हैं। सयोग-केवली यदि तीर्थंकर हों तो वे तीर्थ की स्थापना करते हैं, देशना देकर तीर्थ का प्रवर्तन करके वे भव्यजीवों को संसार-सागर तैरने (पार करने) का एक महान् साधक बना जाते हैं।
इस गुणस्थानवी जीव को घातिकर्मों के सर्वथा क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व, यथाख्यातचारित्र, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अवेदित्व, अनन्तसुख, अतीन्द्रियत्व, दानलाभ-भोग-उपभोग-वीर्यरूप पंचलब्धियाँ (ये १२ गुण) उत्पन्न होती हैं। सयोगी केवली के क्षायिक भाव एवं सूक्ष्म क्रियाऽप्रतिपाति शुक्लध्यान होता है। इस गुणस्थानवर्ती साधक सलेश्य और सयोगी कहलाते हैं।३
१. (क) गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गा. ६३ टीका ... (ख) तत्र भावमोक्षः केवलज्ञानोत्पत्तिः जीवन्मुक्तोऽर्हत्पदपित्येकार्थः
-पंचास्तिकाय गा. १५० वृ. टीका २. (क) आत्म तत्व-विचार, पृ. ४९५, ४९६,
(ख) धवला १/१/१ सू. २२, पृ. १९२ ... (ग) असहाय-णाण-दसणसहियो, इति केवली हु जोगेण। जुत्तोत्ति सजोगि-जिणो अणाइ-णिहणारिसे उत्तो।
-गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गा. ६४ (घ) जैन दर्शन में आत्मविचार (डॉ. लालचन्द्र जैन) पृ. २६३ (ङ) कर्मग्रन्थ भा. २, विवेचन (मरुधरकेसरीजी), पृ. ४२
(च) जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ. १६८ ३. (क) गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गा. ६३ ... (ख) प्रवचनसार १/४५,
(ग) धवला १/१/२९
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