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________________ ३३२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ गुणस्थानों में किसी न किसी अंश में राग का उदय होने से पूर्ण वीतरागत्व असम्भव है। तथा 'छद्मस्थ' विशेषण न रहने से भी 'क्षीणकषाय वीतराग' इतना नाम रहने पर बारहवें गुणस्थान के अतिरिक्त तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान का भी बोध हो सकता है। परन्तु 'छद्मस्थ' विशेषण रहने से बारहवें गुणस्थान का ही बोध होता है। यद्यपि बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में शेष तीन घातिकर्मों का आवरण दूर हो जाता है, तथापि उससे पहले आवरण रहने से उसे 'छद्मस्थ' कहा जाता है, किन्तु तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती साधक के छद्म (घातिकर्मों का आवरण) बिल्कुल नहीं रहता। इस गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। इस प्रकार क्षीणकषाय-वीतरागछद्मस्थ कहने से बारहवें गुणस्थान की यथार्थ स्थिति का बोध होता है, तथा सम्बन्धित अन्य आशंकाओं का निराकरण हो जाता है। (१३) सयोगीकेवली गुणस्थान : स्वरूप, कार्य और अधिकारी शुक्लध्यान की दूसरी मंजिल पूरी होते ही जीव ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय, इन चार घातिकर्मों का सर्वथा क्षय कर देता है। मोहकर्म का क्षय तो बारहवें गुणस्थान में ही हो गया था। शेष तीन कर्मों का क्षय तत्पश्चात् हो जाने से सयोगीकेवली गणस्थान प्राप्त होने के साथ ही केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति हो जाती है। अतः जो चार घातिकर्मों का पूर्णतः क्षय करके अनन्त-चतुष्टय यानी केवलज्ञान-केवलदर्शन आदि चारों प्राप्त कर चुके हैं, तथा पदार्थों के जानने देखने में इन्द्रिय, प्रकाश और मन आदि की अपेक्षा नहीं रखते, एवं जिनके योगों (मन-वचन-काया) की प्रवृत्ति शेष रहती है, अर्थात्-जो योग-सहित हैं, उन्हें सयोग या सयोगीकेवली कहते हैं। उनकी उस अवस्था-विशेष को सयोगी केवली गुणस्थान कहते हैं। षट्खण्डागम में इसे सयोगकेवली कहा गया है। केवल पद से यहाँ केवलज्ञान का ग्रहण किया गया है। जिसमें इन्द्रिय, प्रकाश और मन की अपेक्षा नहीं होती, उसे केवलज्ञान कहते हैं। ऐसा निरपेक्ष ज्ञान जिसके होता है, उसे केवली कहते हैं। योग कहते हैं-आत्मवीर्य, शक्ति, उत्साह,पराक्रम या प्रवृत्ति को जो योग के सहित हैं, वे सयोग हैं। केवल (विशुद्ध) ज्ञान होने के पश्चात् भी वे शरीरधारी रहते हैं, इस कारण वे यौगिक प्रवृत्तियों से मुक्त नहीं होते। अर्थात् उनके मन-वचन-काय इन तीन साधनों से योग की प्रवृत्ति होती है। चारों घाती कर्मों के नष्ट होने पर वे अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्तसुख से सम्पन्न हो जाने से विश्वतत्वज्ञ तथा सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन जाते हैं। इसीलिए सयोग-केवली भगवान को जिन, अर्हत्, अरिहंत, तीर्थकर, सदेहयुक्त, भाषकसिद्ध एवं भावमोक्ष व सामान्य १. (क) जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप पृ. १६८ (ख) आत्मतत्वविचार, पृ. ४९४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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