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________________ ३३६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ का निरोध करते हैं। तत्पश्चात् वादर वचनयोग का निरोध करते हैं। इस प्रकार तीन/ प्रकार के बादर योगों में से दो प्रकार के बादरयोगों का निरोध हो जाने पर सूक्ष्म काययोग से बादर काययोग का, सूक्ष्म मनोयोग का, सूक्ष्म वचनयोग का निरोध करके। अब केवल सूक्ष्म.काय योग बाकी रह जाता है। सूक्ष्म क्रियाऽप्रतिपाती नामक तृतीय शुक्लध्यान के द्वारा सूक्ष्म काययोग का भी निरोध कर लेते हैं। इस प्रकार त्रिविध योग निरोध हो जाने पर जीव के समस्त आत्मप्रदेश मेरुशैलवत् निष्कम्प हो जाते हैं। इसे शैलेशी अवस्था या शैलेशीकरण कहते हैं। इस प्रकार कर्म, जन्म, देह आदि से सर्वथा रहित होकर 'अ इ उ ऋ लु' इन पांच लघु (ह्रस्व) अक्षरों को बोलने में जितना समय लगता है, उतने समय में वह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो जाता है; अपने शुद्ध स्वरूप, परमात्मपद, स्वरूप-सिद्धि, मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण, शिव, अरूप, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध, अपुनरावृत्ति आदि को प्राप्त कर लेता है। इस गुणस्थान में एकमात्र क्षायिक भाव और समुच्छिन्न-क्रियाऽनिवृत्ति (व्युपरतक्रियानिवृत्ति) नामकं चतुर्थ शुक्लध्यान होता है। ज्ञानावरणीय आदि आठों ही कर्मों का सर्वथा क्षय करके अयोग-केवली सदा के लिए सांसारिक बन्धनों से मुक्त हो जाता है। आठ कर्मों के क्षय करने से सिद्ध भगवान् को अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त अव्याबाध सुख, अनन्तवीर्य (आत्मशक्ति), क्षायिक सम्यक्त्व, अटल अवगाहना, अमुर्तत्व और अगुरुलघुत्व, ये आठ आत्मगुण शाश्वतरूप से प्राप्त हो जाते हैं। चतुर्थ शुक्लध्यान के अन्त में जीव अवशिष्ट समस्त अघातिकर्मों का क्षय करके अपनी स्वाभाविक ऊर्ध्वगति से लोक के अग्रभाग में सिद्धशिला के सिद्धस्थान में पहुँच कर वहाँ स्थिर हो जाता है। उस समय सिद्ध परमात्मा की अवगाहना अन्तिम शरीर की अवगाहना से २/३ होती है; यानी उनके आत्मप्रदेश इतने संकुचित-घने हो जाते हैं कि वे शरीर के दो-तिहाई हिस्से में समा जाते हैं। शुद्ध आत्मा की ऊर्ध्वगति के तत्त्वार्थ सूत्र में चार कारण बताये गए हैं-(१) पूर्व प्रयोग से-जैसे-कुम्हार के चाक में, बाण में, हिंडोले में पूर्व प्रयोग से गति होती है, (२) असंगत्व से-मिट्टी के लेप का संग हट जाने से तुम्बे की ऊर्ध्वगति होती है. (३) बन्ध-छेद से-जैसे-एरण्ड के बीज का ऊपरी बन्धन हट जाने से उसके बीज की ऊर्ध्वगति होती है, वैसे ही कर्मबन्ध के छिन्न हो जाने से जीव की ऊर्ध्वगति होती है। तथा (४) गति परिणाम से-आग की लपट की स्वाभाविक ऊर्ध्वगति होती है, वैसे ही शुद्ध आत्मा की स्वाभाविक गति ऊर्ध्व है। अतः द्रव्य-भाव कर्मों से १. (क) जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ. १७० (ख) आत्मतत्त्वविचार, पृ. ४७९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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