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३२४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ परस्पर समान होता है। दूसरे समय भी सर्व जीवों का अध्यवसाय परस्पर समान होता है। इस तरह हर समय में क्रमशः अनन्त-गुण विशुद्ध अध्यवसाय समान ही होते हैं। इसलिए यह सदृश परिणाम-विशुद्धि का गुणस्थान है। यद्यपि अन्तर्मुहूर्तमात्र अनिवृत्तिकरण के काल में से किसी एक समय में रहने वाले अनेक जीवों में शरीर के आकार, वर्ण आदि का तथा ज्ञानोपयोग आदि की अपेक्षा भेद होता है, परन्तु जिन विशुद्ध परिणामों के द्वारा उनमें भेद नहीं होता, वे अनिवृत्तिकरण (परिणाम) कहलाते हैं। दसवें गुणस्थान की अपेक्षा इस नौवें गुणस्थान में कषाय (सम्पराय) बादर होते हैं, इसलिए इस गुणस्थान का परिष्कृत नाम 'अनिवृत्ति बादरसम्पराय' भी है। अनिवृत्तिबादर गुणस्थान में अपूर्व प्रकार का यह भावोत्कर्ष (आत्मिक भावों की निर्मलता) आगे के आत्मोत्कर्ष के लिए साधकतम होता है। इस गुणस्थानवर्ती साधकों में उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धि से बढ़ते हुए एक-से (समान-विशुद्धि को लिए हुए) ही परिणाम पाए जाते हैं। तथा वे अत्यन्त निर्मल ध्यानरूपी अग्नि की शिखाओं से कर्मवन को भस्म करते जाते हैं। 'धवला' में निवृत्ति का एक अर्थ व्यावृत्ति भी किया है। इस अपेक्षा से अनिवृत्ति का अर्थ होता है-जिन (उत्तरोत्तर विशुद्ध) परिणामों की निवृत्ति अर्थात्-व्यावृति नहीं होती, (अर्थात्-एक बार विशुद्ध हुए परिणाम पुनः कदापि छूटते नहीं)। अनिवृत्तिकरण में प्रतिसमय (प्रत्येक समय) में एक-एक ही परिणाम होता है, क्योंकि इस गुणस्थान में एक समय के परिणामों में जघन्य और उत्कृष्ट भेद नहीं होते; जबकि अपूर्वकरण गुणस्थान में प्रति समय जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद होते हैं। इसी प्रकार अपूर्वकरण में अनिवृत्तिकरण गुणस्थान की भांति सम-समयवर्ती परिणामों में निवृत्ति रहित होने का कोई नियम नहीं है।
१. (क) आत्म तत्व विचार से भावांश ग्रहण, पृ. ४८७ ।
(ख) जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ. १६५, १६६ (ग) जैन सिद्धान्त (पं. कैलाशचन्द्र जी जैन), पृ.८२ (घ) न विद्यते निवृत्तिः-विशुद्धि-परिणाम भेदो येषां ते अनिवृत्तयः।
-गोम्मटसार (जीवकाण्ड) टीका, गा. ५६,५७ (ङ) वही, गा. ९, ११, १२ (च) अथवा निवृत्ति या॑वृत्तिः, न विद्यते निवृत्तिर्येषां तेऽनिवृत्तयः।
-धवला १/१/१, सूत्र १७ (छ) वही, १/१/१ सू. १७, पृ. १८३ (ज) वही ६/१ भा. ९/८ सू. ४, पृ. २२१ (झ) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भा. २, पृ. १४ (ब) जैन दर्शन में आत्मविचार, (डॉ. लालचन्द्र जैन), पृ. २६०-२६१ .
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