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___ मोह से मोक्ष तक की यात्रा की १४ मंजिलें ३२३
गुणश्रेणि की कालमर्यादा अधिक होती है, जबकि इस गुणस्थान में गुणश्रेणि योग्य दलिक अत्यधिक होते हुए भी उनकी कालमर्यादा बहुत कम होती है। पहले के गुणस्थानों की अपेक्षा गुणसंक्रमण भी इस गुणस्थान में बहुत कर्मों का होता है। इस गुणस्थान में कर्म भी पूर्व गुणस्थानों की अपेक्षा अत्यल्प स्थिति के बांधे जाते हैं। अतएव इस गुणस्थान में स्थितिघात आदि पदार्थों का अपूर्व विधान होने से इसे अपूर्वकरण गुणस्थान कहते हैं।
इस गुणस्थान में उपशमन या क्षपण की तैयारी यद्यपि आठवें गुणस्थान में चारित्रमोहनीय कर्म का क्षपण या उपशमन का कार्य प्रारम्भ नहीं हो जाता, क्योंकि वह कार्यारम्भ तो नौवें गुणस्थान से होता है, तथापि आठवें गुणस्थान से आत्मा की विशिष्ट योगीरूप अवस्था प्रारम्भ हो जाती है। वह औपशमिक या क्षायिक भावरूप विशिष्ट फल उत्पन्न करने के लिए चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय या उपशम करने की योग्यता आ जाती है। इसीलिए यह अपूर्वकरण गुणस्थान उपशमक एवं क्षपक रूप से दो प्रकार का है। चारित्रमोह का उपशम या क्षय करने के लिए तीन गुणस्थानों में क्रमशः तीन करण करने पड़ते हैं जिसके लिए साधक इस गुणस्थान में उद्यत हो जाता है। ७वें में यथाप्रवृत्तिकरण, ८वें में अपूर्वकरण और ९वें में अनिवृत्तिकरण। आठवें गुणस्थान का काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। गुणस्थान क्रमारोह के अनुसार इस गुणस्थान में पृथक्त्व-वितर्क नामक शुक्लध्यान होता है। . (९) अनिवृत्ति बादर-सम्पराय-गुणस्थान (अनिवृत्तिकरण गुणस्थान)
आठवें गुणस्थान को प्राप्त करने वाला संयतात्मा प्रगति करके नौवें गुणस्थान में आता है। इस गुणस्थान का नाम अनिवृत्तिबादर या अनिवृत्ति बादर-सम्पराय गुणस्थान है। इसे अनिवृत्तिकरण-गुणस्थान भी कहा जाता है। अनिवृत्ति का अर्थ 'अभेद' और निवृत्ति का अर्थ 'भेद' है। अर्थात्-यहाँ अध्यवसाय (परिणामों) की भिन्नता नहीं होती। इस गुणस्थान में समान-समयवर्ती जीवों के विशुद्ध परिणामों की भेद-रहित वृत्ति 'निवृत्ति' होती है। अर्थात्-सम-काल में समागत जीवों की परिणाम-विशुद्धि सदृश होती है; यानी उन सब समकालवर्ती जीवों का अध्यवसाय
१. कर्मग्रन्थ भा. २ विवेचन (मरुधरकेसरी जी), पृ. ३०
(क) वही, भा. २, पृ. ३०
(ख) चौद गुणस्थान, पृ. १३० २. (ग) गोम्मटसार गाथा ५२, ५३, ५४ ___(घ) गुणस्थान क्रमारोह गा. ५१
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