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________________ मोह से मोक्ष तक की यात्रा की १४ मंजिलें ३२५ आठवें और नौवें गुणस्थान में अन्तर यद्यपि आठवें और नौवें दोनों गुणस्थानों में अध्यवसायों (परिणामों ) में विशुद्धि होती रहती है, फिर भी उन दोनों की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। जैसेआठवें गुणस्थान में समान-समयवर्ती त्रैकालिक अनन्त जीवों के अध्यवसाय-शद्धि के तारतम्य के कारण वे असंख्यात वर्गों में विभाजित किये जा सकते हैं, जबकि नौवें गुणस्थान में तुल्य समयवर्ती त्रैकालिक अनन्त जीवों के अध्यवसायों की एकसी शुद्धि के कारण एक ही वर्ग होता है। पूर्व-पूर्व गुणस्थान की अपेक्षा उत्तर-उत्तर गुणस्थान में कषाय के अंश बहुत कम होते जाते हैं तथा कषायों की मन्दता के अनुसार जीव के परिणामों की विशुद्धि बढ़ती जाती है। इसी कारण नौवें गुणस्थान क्रोध, मान, माया ,और वेद का समूल क्षय हो जाता है। फलतः आठवें गुणस्थान की अपेक्षा नौवें गुणस्थान में विशुद्धि इतनी अधिक हो जाती है कि उसके अध्यवसायों की भिन्नताएँ आठवें गुणस्थान के अध्यवसायों की भिन्नताओं से बहुत कम हो जाती - आशय यह है कि नौवें गुणस्थान के अध्यवसायों के उतने ही वर्ग हो सकते हैं, जितने इस. गुणस्थान के समय हैं। फिर यह भी है कि एक-एक वर्ग में चाहे वैकालिक अनन्त जीवों के अध्यवसायों की अनन्त व्यक्तियाँ सम्मिलित हो, फिर भी उन-उन प्रत्येक वर्ग के समस्त अध्यवसाय शुद्धि में समान होने से उन-उन प्रत्येक वर्ग का अध्यवसाय-स्थान एक ही होता है। किन्तु प्रथम समय के अध्यवसाय-स्थान से-प्रथमवर्गीय अध्यवसायों से-द्वितीय समय के अध्यवसाय-स्थान-द्वितीयवर्ग के अध्यवसाय-अनन्तगुणे विशुद्ध होते हैं। इसी प्रकार तीसरे, चौथे आदि से लेकर नौवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक पूर्व-पूर्व समय के अध्यवसाय-स्थान से उत्तर-उत्तर समय के अध्यवसाय-स्थान अनन्तगुणे विशुद्ध समझने चाहिए। नौवें गुणस्थान में सिर्फ ऊर्ध्वमुखी विशुद्धि से विचारणा सम्भव है, जबकि आठवें गुणस्थान में ऊर्ध्वमुखी और तिर्यग्मुखी, यों दोनों प्रकार की विशुद्धि से विचारणा है। किन्तु नौवें गुणस्थान में भी आठवें गुणस्थान की तरह अपूर्व स्थितिघात आदि पांचों करण अर्थात् क्रियाएँ होती हैं, अथवा पांचों करण यानी परिणाम होते हैं। इसीलिए इस गुणस्थान का एक नाम अनिवृत्तिकरण भी है। - १. (क) कर्मग्रन्थ भा. २ विवेचन (मरुधरकेसरी जी), पृ. ३४ (ख) कर्मग्रन्थ भा. २ विवेचन (पं. सुखलाल जी), पृ. २०, २१ . (शेष पृष्ठ ३२६ पर) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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