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मोह से मोक्ष तक की यात्रा की १४ मंजिलें ३०५ मिश्रगुणस्थानवर्ती जीव के मति, श्रुत और अवधिज्ञान भी मिश्र प्रकार के होते हैं। इस गुणस्थान से जीव प्रथम या चौथे गुणस्थान में जाता है, अन्य गुणस्थान में नहीं। यह गुणस्थान सादि सान्त है। इसकी स्थिति अन्तर्मुहर्त की है। इस गुणस्थान में सिर्फ क्षायोपशमिक भाव ही होता है।
दूसरे गुणस्थान की अपेक्षा तीसरे (मिश्र) गुणस्थान की यह विशेषता है कि दूसरे गुणस्थान में केवल अपक्रान्ति ही होती है, जबकि तीसरे गुणस्थान में अपक्रान्ति और उत्क्रान्ति दोनों ही होती हैं। जो आत्मा मिथ्यात्व का त्याग करके सीधा इस अवस्था को प्राप्त होता है, वह पूर्वगुणस्थान की अपेक्षा उत्क्रान्ति स्थान को प्राप्त होता है और जो आत्मा अधःपतनोन्मुख होता है, वह चतुर्थ गुणस्थान से गिरकर इस अवस्था को प्राप्त होता है, वह ऊपर के गुणस्थान की अपेक्षा अपक्रान्ति-स्थान में आता है।
(पृष्ठ ३०४ का शेष).
(ग) आत्मतत्त्व विचार, पृ. ४५२ (घ) जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ. १५४-१५५ (ङ) मिश्रकर्मोदयाज्जीवे, सम्यग्-मिथ्यात्व मिश्रितः।
यो भावोऽन्तर्मुहूर्त स्यात्तन्मिश्रस्थानमुच्यते॥१३॥ जात्यन्तर-समुद्भतिर्बध्वा -खरयोर्यथा। गुड़ध्नोः समायोगे रस भेदान्तरं तथा॥ १४॥ - आयुर्बध्नाति नो जीवो, मिश्रस्थो म्रियते न वा।। सदृष्टिर्वा कुदृष्टिर्वा भूत्वा मरणमश्नुते॥१६॥ . सम्यग्मिथ्यात्वयोर्मध्ये ह्यायुर्येनार्जितं पुरः।
म्रियते तेन भावेन, गतिं याति तदाश्रिताम्॥ १७॥ -गुणस्थान क्रमारोह (च) मिस्सुदए तच्चामियरेण सद्दहदि एक समये। -लाटी संहिता गा. १०७ (छ) सम्यङ् मिथ्यात्व-संज्ञिकायाः प्रकृतेरुदयात् आत्मा क्षीणाक्षीण-मदशक्ति. ... कौद्रव्योः परिणामवत् तत्त्वार्थ-श्रद्धानाश्रद्धानरूपः।'
-तत्त्वार्थवार्तिक ९/१/१४, पृ० ५८९ (ज) सो संजयं ण गिण्हदि, देसजयं वा ण बंधदे आउं।
सम्मं वा मिच्छं वा पडिवजिय मरदि णियमेण॥ सम्मत्त-मिच्छ-परिणामेसु जहिं आउगं पुरा बद्धं।
तहिं मरणं, मरणंत-समुग्घादो वि य ण मिस्सम्मि॥-गोम्मटसार २३, २४, २१, २२ १. (क) षट्खण्डागम धवला टीका १/१/१ सू. ११ • (ख) जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ. ११५ .(ग) अतएवस्य त्रीणि ज्ञानानि अज्ञानमिश्राणि। -तत्त्वार्थवार्तिक ९/१/१४ (घ) षट्खण्डागम ४/१०५ सू० ९
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