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________________ ३०६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ जब किसी जीव को सर्वप्रथम सत्य का दर्शन होता है, तब वह आश्चर्य चकित हो जाता है। उसके पुराने संस्कार उसे पीछे की ओर घसीटते हैं, जबकि सत्य का दर्शन उसे आगे बढ़ने के लिये प्रोत्साहित करता है। ऐसी डांवाडोल स्थिति होती तो. थोड़े समय (सिर्फ अन्तर्मुहूर्त) के लिए ही है । बाद में या तो वह मिथ्यात्व में जा गिरता है, या फिर वह सम्यक्त्व (सत्य) को प्राप्त कर लेता है। इस गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी कषाय न होने से पूर्वोक्त दोनों गुणस्थानों की अपेक्षा यह गुणस्थान उच्च है। परन्तु इस गुणस्थान में विवेक की पूर्ण प्राप्ति नहीं होती, अर्थात् सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों का मिश्रण होता है। अर्थात् - सन्मार्ग या सत्तत्व के बारे में श्रद्धा भी नहीं, अश्रद्धा भी नहीं, दोनों के बारे में मिश्रित जैसी श्रद्धा होती है, जो सत् और असत् दोनों ओर झुकी हुई होती है । १ (४.) अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान : स्वरूप, कार्य, अधिकारी हिंसादि सावद्य-व्यापारों को छोड़ देना, अर्थात् - पापजनक प्रयत्नों से हट जाना विरति है | चारित्र, संयम, व्रत विरति के पर्यायवाची शब्द हैं। जो सम्यग्दृष्टि तो हो, : किन्तु किसी भी प्रकार के व्रत को ग्रहण- स्वीकार नहीं कर सकता, वह जीव अविरत - सम्यग्दृष्टि है और उसका स्वरूप - विशेष अविरत - सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहलाता है। अर्थात् जिसकी दृष्टि सम्यक् होती है, किन्तु जिसमें व्रत - ग्रहण की योग्यता नहीं होती, उसे अविरतसम्यग्दृष्टि कहा गया है। गोम्मटसार में इसे असंयतसम्यग्दृष्टि भी कहा गया है। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव का दृष्टिकोण समीचीन होता है, किन्तु चारित्रमोह के अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय के उदय के कारण इन्द्रियादि विषयों से तथा हिंसादि पापों से विरत नहीं हो पाता, २ किन्तु जिनोपदिष्ट तत्वों का श्रद्धान रहता है। इसे अविरत क्यों कहा गया ? आशय यह है कि इस गुणस्थानवर्ती जीव के अनन्तानुबन्धी कषायें उदय में नहीं होतीं, किन्तु अप्रत्याख्यानी आदि कषायें उदय में होती हैं, इसलिए चारित्र १. जैनदर्शन ( न्या. न्या. न्यायविजय जी ) पृ. १०९-११० २. (क) कर्मग्रन्थ भा. २ ( पं० सुखलाल जी) (ख) असंयतश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्च असंयत- सम्यग्दृष्टिः ॥ -धवला १/१/१ सू० १८ (ग) णो इंदिएसु विरदो णो जीवे थावरे तसे वापि । जो सद्दहदि जिकृत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो ॥ Jain Education International - गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) गाथा २९ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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