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३०४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ अशुद्ध, अर्धशुद्ध और शुद्ध। इन तीनों पुंजों में से जब अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय नहीं होता, तब सम्यक्त्वरूप शुद्ध और मिथ्यात्वरूप अशुद्ध इन दोनों मिश्रणरूप अर्धशुद्ध पुंज का उदय हो जाता है। इसके कारण जीव की दृष्टि भी कुछ सम्यक (शुद्ध) तथा कुछ मिथ्या (अशुद्ध) अर्थात्-मिश्र हो जाती है। इस गुणस्थान के समय बुद्धि में दुर्बलता-सी आ जाती है। जिस कारण जीव की सर्वज्ञकथित तत्त्वों पर न तो एकान्त रुचि होती है और न ही एकान्त अरुचि। जैसे-नारिकेल द्वीप में उत्पन्न मनुष्यों ने वहाँ नारियल ही प्रधान खाद्य पैदा होते देखा होता है। वहाँ के निवासियों ने कभी चावल आदि अन्न न तो देखा है, न सुना है। इस कारण अदृष्ट
और अश्रुत अन्न को देखकर वे न तो उसके प्रति रुचि करते हैं, और न घृणा ही; अपितु मध्यस्थ रहते हैं। 'लाटी संहिता' में बताया गया है कि "मिश्र-गुणस्थानवर्ती जीव एक ही समय में (युगपत्) सर्वज्ञोपदिष्ट और असर्वज्ञोपदिष्ट सिद्धन्तों पर मिश्ररूप श्रद्धा करता है।" जिस प्रकार दही और गुड़ को भलीभांति मिला देने पर उन दोनों को अलग-अलग नहीं किया जा सकता है और उसका स्वाद न तो केवल खट्टा होता है, और न केवल मीठा, किन्तु दोनों का मिश्रित स्वाद हो जाता है, उसी प्रकार आत्म-गुणों की घातक कर्मप्रकृतियों में से सम्यग्-मिथ्यात्व-प्रकृति का कार्य ऐसे विलक्षण प्रकार का होता है कि उससे न केवल सम्यक्त्व रूप. परिणाम होते हैं, और न केवल मिथ्यात्वरूप परिणाम; किन्तु दोनों के मिले-जुले परिणाम होते हैं।
मिश्रगुणस्थान की विशेषताएं इस गुणस्थान की एक विलक्षणता यह है कि इस गुणस्थान में न तो आयुष्य का बन्ध होता है और न मरण ही। इस अपेक्षा से इस गुणस्थान को अमर गुणस्थान भी कहा गया है। गोम्मटसार के अनुसार-यदि इस गुणस्थान वाला जीव मरता है तो नियम से या तो सम्यक्त्वरूप या फिर मिथ्यास्वरूप परिणामों को प्राप्त करके ही मरता है, मगर इस गुणस्थान में रहते हुए नहीं मरता। आशय यह है कि तृतीय गुणस्थानवी जीव ने इस गुणस्थान को प्राप्त करने से पहले सम्यक्त्वरूप या मिथ्यात्वरूप जिस जाति के परिणामों में आयुष्यकर्म का बन्ध किया हो, उन्हीं परिणामों के होने पर उसकी मृत्यु होती है। किन्तु मिश्रगुणस्थान में न तो मरण होता है, और न मारणान्तिक समुद्घात ही। मिश्र गुणस्थानवी जीव सकल-संयम या देशसंयम को भी ग्रहण नहीं कर पाता।
१. (क) कर्मग्रन्थ भा. २ विवेचन (पं० सुखलाल जी) पृ. १२,
(ख) वही, विवेचन (मरुधरकेसरी) पृ० २०, २१
(शेष पृष्ठ ३०५ पर)
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