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________________ मोह से मोक्ष तक की यात्रा की १४ मंजिलें ३०३ .. चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि से लगाकर ग्यारहवें उपशान्तमोहनीय गुणस्थान तक के जीव मोहकर्म के उदय से उपशम-सम्यक्त्व से गिरते हैं, उनकी गणना इस गुणस्थान में की जाती है। इस गुणस्थानवी जीव जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट छह आवलिका के बाद सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व को अवश्य पाते हैं। गिरने में कितनी देर लगती है? इस अपेक्षा से यह गुणस्थान क्षणमात्र का है। यह गुणस्थान ऊँचे-चढ़ते हुए जीवों का नहीं, नीचे गिरते हुए जीवों का होता है। इसलिए इसे अवनति-स्थान मानना चाहिए। फिर भी इस गुणस्थान में आने वाले जीव अवश्य ही मोक्षगामी होते हैं। - इसे सासादन गुणस्थान इसलिए कहते हैं कि इसमें अतितीव्र क्रोधादि कषाय जीव की सम्यग्दृष्टि को शिथिल या विराधित कर डालते हैं। सासादन शब्द स+आ+सादन, ये तीनों से मिलकर बनता है। इसका भावार्थ होता है, जो गुणस्थान सम्यक्त्व को विशेष प्रकार से शिथिल करने वाले, गलाने वाले या गिराने वाले क्रोधादि कषाय से सहित (मुक्त) हो, वह सासादन गुणस्थान है। सासादन-गुणस्थान की भूमिका तीव्रतर कषायोदयरूप होने से सम्यक्त्व का पतन कराने या सम्यक्त्व की विराधना कराने वाली है। यह गुणस्थान प्रथम गुणस्थान से बढ़कर है, इसलिए इसकी गणना द्वितीय गुणस्थान में की गई है। यह गुणस्थान सादि-सान्त है, तथा यह अभव्य जीवों को नहीं होता। इस गुणस्थान से गिरता हुआ जीव नियमतः प्रथम गुणस्थान में जाता है। . (३) सम्यग्-मिथ्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान — सम्यग्-मिथ्यादृष्टि-गुणस्थान आत्मा के विकास की तीसरी भूमिका-अवस्था है। इसे संक्षेप में समझने के लिए मिश्र-गुणस्थान भी कहते हैं। दर्शनमोहनीय के अन्तर्गत मिश्र-मोहनीय के उदय से जीव को एक साथ समान परिमाण में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का मिश्र भाव होता है। सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के मिश्रणरूप विचित्र अध्यवसाय का नाम मिश्र-गुणस्थान है। मिथ्यात्व-मोहनीय के तीन पुंज होते हैं १. (क) कर्मग्रन्थ दूसरा भाग, विवेचन (मरुधरकेसरी), पृ. १५ (ख) जैनदर्शन (न्या. व्या. न्यायविजय जी), पृ.१०९ (ग) 'स+आ+स्वादन-किञ्चिद् स्वाद-सहित'-आत्मतत्त्व विचार पृ० ४५०, ४५१, ४५२ (घ) 'आसादन' सम्यक्त्व-विराधनं, सह आसादनेनेति सासादनम्।' ___ -धवला १/१/३ पृ० १६३ (ङ) गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गा. १९-२० (च) षट्खण्डागम १/१/१/ सू० १० ; धवला टीका १/१/१/१० पृ० १६६ (छ) सासण सम्मदिट्ठी त्ति को भावो? पारिणामिओ भावो। -षट्खण्डागम ५/१/७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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