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________________ ३०२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ प्रथम गुणस्थान में आ जाए। यह निश्चित है कि जिस जीव को एक बार भी सम्यक्त्व की प्राप्ति हो गई है, वह अर्धपुद्गल परावर्तनकाल में अवश्य ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार मिथ्यात्व गुणस्थान की आदि जिस जीव के हो जाती है, उसका अन्त भी अवश्यम्भावी होता है । १ (२) सास्वादन गुणस्थान: लक्षण, महत्व और अधिकारी यह आत्मा के विकास की दूसरी अवस्था का नाम है। अतः द्वितीय गुणस्थान सास्वादन या सासादन गुणस्थान है। प्राकृत के 'सासादण' शब्द के दो रूप होते हैं। .. जो जीव औपशमिक सम्यक्त्व से च्युत हो जाता है, किन्तु मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता । यह सम्यग्दर्शन से गिरने की अवस्था है। अर्थात् - जो जीव औपशमिक सम्यक्त्वी होते हुए भी अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से सम्यक्त्व को छोड़कर मिथ्यात्व की ओर झुक रहा है, किन्तु अभी तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं किया है, तब तक, यानी जघन्यतः (कम से कम) एक समय और उत्कृष्टतः छह आवलिकापर्यन्त उस जीव का ऐसी अवस्था में टिकना सास्वादन - सम्यग्दृष्टि - गुणस्थान कहलाता है। जिस प्रकार पर्वत से गिरने पर और भूमि पर पहुँचने के पहले मध्य का जो काल है, वह न तो पर्वत पर ठहरने का काल है, और न भूमि पर पहुँचने का, अपितु अनुभव का काल है। इसी प्रकार इस गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी कषायों के उदय होने से अज्ञान - मोह या मिथ्यात्व में गिरने के सम्यक्त्व परिणामों से छूटने तथा मिथ्यात्व-परिणामों के प्राप्त न होने पर बीच के अनुभव - काल में जीव के जो परिणाम होते हैं, उन्हें सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहा जाता है। इस गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी कषायोदयवश जीव जब सम्यक्त्व को छोड़कर मिथ्यात्व की ओर चल पड़ता है, तब उसमें सम्यक्त्व का कुछ स्वाद रह जाता है। जिस प्रकार खीर खाकर उसका वमन करने वाले को खीर के कुछ विलक्षण से स्वाद का अनुभव होता है, उसी प्रकार सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व की ओर उन्मुख हुए जीव को गुण का स्वाद महसूस होता है। इसी कारण इस गुणस्थान को सास्वादन (आस्वादन के सहित) गुणस्थान कहा जाता है। सास्वादन गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय नहीं रहता, इसलिए आगम में इसे सम्यग्दृष्टि गुणस्थान भी माना गया है। इसमें मिथ्यात्व का उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम नहीं है; इसलिए इसे पारिणामिक भाव कहा है। १. (क) अभव्याश्रित - मिथ्यात्वे अनाद्यनन्ता स्थितिर्भवेत् । या भव्याश्रिता मिथ्यात्वे अनादिसान्ता पुनर्मता ॥ (ख) जैन आचार: सिद्धान्त और स्वरूप पृ. १४७ Jain Education International For Personal & Private Use Only - गुणस्थान क्रमारोह ९ www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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