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मार्गणाओं द्वारा गुणस्थानापेक्षया बन्धस्वामित्व-कथन २७९
काय का स्वरूप और प्रकार काय-जाति नामकर्म के अविनाभावी त्रस और स्थावर नामकर्म के उदय से होने वाली आत्मा की पर्याय को काय कहते हैं। काय के छह प्रकार हैं-पृथ्वीकाय,
अप्काय (जलकाय), तेजस्काय (अनिकाय), वायुकाय, वनस्पतिकाय और 'सकाय। पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय, तक के जीव एकेन्द्रिय (केवल स्पर्शेन्द्रिय वाले) होते हैं, उन्हें स्थावर भी कहते हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय; ये तीन विकलेन्द्रिय और उसकाय या त्रस कहलाते हैं। तथा पंचेन्द्रिय जीव भी त्रसकाय या त्रस कहलाते हैं। वे चार प्रकार के हैं-नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव। एकेन्द्रिय और तीन विकलेन्द्रिय की गणना तिर्यञ्चों में की जाती है। इन्द्रियमार्गणा और कायमार्गणा द्वारा बन्धस्वामित्व-कथन
एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रियत्रिक एवं तीन कायों में बन्धस्वामित्व-प्ररूपणा एकेन्द्रिय, तीन विकलेन्द्रिय तथा पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय में, गतिमार्गणा में कहे गए अपर्याप्त तिर्यञ्चों के बन्धस्वामित्व के समान ही सामान्य से तथा मिथ्यात्व गुणस्थान में १०९ प्रकृतियों का बन्ध होता है; क्योंकि अपर्याप्त तिर्यञ्च या मनुष्य तीर्थंकर नामकर्म से लेकर नरकत्रिक पर्यन्त ११ प्रकृतियों का बन्ध नहीं करते। इन एकेन्द्रियादि चार और तीन काय वाले जीवों में सम्यक्त्व नहीं होता । तथा देवगति और नरकगति में उत्पन्न नहीं होते। इसलिए सामान्य बन्ध योग्य १२० प्रकृतियों में से तीर्थंकरनाम, देवत्रिक, नरकत्रिक, वैक्रियद्विक और आहारकद्विक, ये ११ प्रकृतियाँ कम करने से १०९ प्रकृतियाँ ही सामान्य से तथा प्रथम गुणस्थान में बन्ध योग्य होती हैं। ... - द्वितीय सास्वादन गुणस्थान में प्रथम गुणस्थान में उक्त १०९ प्रकृतियों में से सूक्ष्मत्रिक आदि (सूक्ष्मत्रिक, विकलत्रिक, एकेन्द्रिय जाति, स्थावर नाम, नपुंसकवेद, मिथ्यात्वमोहनीय, हंडकसंस्थान और सेवा संहनन, इन) तेरह प्रकृतियों के सिवाय ९६ प्रकृतियाँ बंधती हैं। इन १३ प्रकृतियों को कम करने का कारण यह है कि दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय न होने से मिथ्यात्व-सम्बन्धित १३ प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता । भवनपति एवं व्यन्तर जाति के देव मिथ्यात्व-निमित्तक एकेन्द्रियप्रायोग्य आयु का बन्ध करने के पश्चात् सम्यक्त्व प्राप्त करें और मरण के समय
१. (क) तृतीय कर्मग्रन्थ, विवेचन (मरुधरकेसरीजी) से भावांश ग्रहण, पृ. ४, ५, ४०,
.४१ एवं ४२ (ख) जिण इक्कारस-हीणं, नवसउ अपजत्त-तिरिय-नरा। . -तृतीय कर्मग्रन्थ, गा.९
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