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________________ २७८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ आनत से नव-प्रैवेयक और पंच अनुरत्तरवासी देवों की बन्धस्वामित्व प्ररूपणा आनत से लेकर नव-प्रैवेयक तक के देव उद्योतचतुष्क (उद्योतनाम, तिर्यञ्चगति, तिर्यश्चानुपूर्वी और तिर्यश्चायु, इन चार प्रकृतियों को नहीं बाँधते हैं, क्योंकि इन देवलोकों से च्यव कर ये देव मनुष्यगति में ही उत्पन्न होते हैं, तिर्यञ्चों में नहीं। अतः १२० प्रकृतियों में से तिर्यञ्च-प्रायोग्य उक्त ४ प्रकृतियों को तथा सुरद्विक आदि १९ प्रकृतियों को कम करने से सामान्य से ९७ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। तथा गुणस्थानों की अपेक्षा पहले में ९६, दूसरे में ९२, तीसरे में ७० और चौथे में ७२ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। पाँच अनुत्तरविमानों के देव एकान्त सम्यक्त्वी होने से उनके सामान्यतः तथा गुणस्थान की अपेक्षा से ७२ प्रकृतियों का बन्ध समझना चाहिए। (२-३) इन्द्रियमार्गणा और कायमार्गणा में बन्ध-स्वामित्व-प्ररूपणा इन्द्रिय का स्वरूप और प्रकार इन्द्रियावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर भी स्वयं पदार्थ का ज्ञान करने तथा ज्ञात होने वाले पदार्थ को व्यक्त करने में असमर्थ ज्ञस्वभावरूप आत्मा को पदार्थ के ज्ञान कराने में माध्यम या निमित्तभूत कारण को इन्द्रिय कहते हैं। अथवा जिसके द्वारा आत्मा या आत्मा के द्वारा ज्ञातक विभिन्न पदार्थों को जाना जाए, उसे इन्द्रिय कहते हैं। अथवा अपने-अपने स्पर्शादिक विषयों के ज्ञान या प्रवृत्ति में दूसरे (रसनादि) की अपेक्षा न रखकर जो स्वतंत्र हों, उन्हें इन्द्रिय कहते हैं। इन्द्रियाँ पांच होती हैं-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र। जिस जीव को क्रम से जितनी-जितनी इन्द्रियां होती हैं, उसको उतनी इन्द्रिय वाला जीव कहते हैं। जैसेजिसके पहली एकमात्र स्पर्शनेन्द्रिय होती है, उसे एकेन्द्रिय, जिसके स्पर्शन और रसना, ये दो इन्द्रियाँ हों, उसे द्वीन्द्रिय, जिसके स्पर्शन, रसना और घ्राण हों, उसे त्रीन्द्रिय, जिसके स्पर्शन, रसना, घ्राण और नेत्र, ये चार इन्द्रियाँ हों, उसे चतुरिन्द्रिय और जिसके स्पर्शन, रसना, घ्राण (नासिका), नेत्र और श्रोत्र (कर्ण), ये पांचों इन्द्रियाँ हों, उसे पंचेन्द्रिय कहते हैं। १. (क) रयणव्व सणंकुमाराई आणयाई उजोय-चउ-रहिया। अपज्जतिरियव्व नवसयमिगिदि पुढवि-जल-तस-विगले॥११॥ . -तृतीय कर्मग्रन्थ (ख) तृतीय कर्मग्रन्थ, गा. ११, व्याख्या (मरुधरकेसरीजी) पृ. ३९, ४० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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