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________________ मार्गणास्थान द्वारा संसारी जीवों का सर्वेक्षण-२ २३५ कहीं-कहीं कृष्ण आदि तीन अशुभ लेश्याओं में पहले चार ही गुणस्थान कहे हैं, वे भी प्राप्तिकाल की अपेक्षा से। अर्थात्-उक्त तीन लेश्याओं के समय आदि के ४ गुणस्थानों के सिवाय अन्य कोई भी गुणस्थान प्राप्त नहीं किया जा सकता। तेजोलेश्या और पद्मलेश्या में आदि के जो सात गुणस्थान माने गए हैं, वे प्रतिपद्यमान और पूर्व-प्रतिपन्न, दोनों की अपेक्षाओं से समझने चाहिए। अर्थात्-सात गुणस्थानों को पाने के समय और पाने का बाद भी उक्त दो लेश्याएँ रहती हैं। ___ अनाहारक मार्गणा में पहला, दूसरा, चौथा, तेरहवाँ और चौदहवाँ, ये पाँच . गुणस्थान कहे गए हैं, इनमें से पहले तीन गुणस्थान विग्रहगतिकालीन अनाहारकअवस्था की अपेक्षा से, तेरहवाँ गुणस्थान केवलि-समुद्घात के तीसरे, चौथे, पाँचवें समय में होने वाली अनाहारक अवस्था की अपेक्षा से और चौदहवाँ गुणस्थान योगनिरोधजन्य अनाहारक-अवस्था की अपेक्षा से समझना चाहिए। ___ यों तो तीसरे, बारहवें और तेरहवें, इन तीन गुणस्थानों में मरणाभाव के सिवाय शेष ग्यारह गुणस्थानों में तो मरण होता ही है, फिर आदि के तीन गुणस्थानों (पहले, दूसरे और चौथे) में ही विग्रहगतिकालीन मरणावस्था में ही अनाहारक क्यों कहा गया? इसका समाधान यह है कि यहाँ निश्चयमरणकालीन विग्रहगति का कथन है, व्यावहारिक मरणकालीन का नहीं। निश्चयमरणकाल परभव की आयु का प्राथमिक उदय है, उस समय जीव विरति रहित होता है। विरति का सम्बन्ध वर्तमान भव के अन्तिम समय तक ही है । इसलिए निश्चयमरणकाल-अर्थात् विग्रहगति में पहले, दूसरे और चौथे गुणस्थान को छोड़कर विरति वाले पाँचवें आदि आठ गुणस्थानों का सम्भव ही नहीं हैं। मार्गणास्थानों में योगों का सर्वेक्षण ". योग सामान्यतया तीन ही होते हैं-मनोयोग, वचनयोग और काययोग। काययोग में ही मन-वचनयोग का समावेश क्यों नहीं ? एक शंका उपस्थित होती है कि मनोयोग और वचनयोग एक प्रकार से काययोग ही हैं; क्योंकि इन दोनों योगों के समय शरीर का व्यापार अवश्य रहता ही है और इन दोनों योगों के आलम्बनभूत मनोद्रव्य तथा भाषा द्रव्य का ग्रहण भी किसी न किसी प्रकार के शारीरिक योग से ही होता है, फिर इन दोनों योगों को पृथक् क्यों १. (क) अस्सनिसु पढमदुगं, पढम-ति-लेसासु छच्च दुसु सत्त। पढमंतिम दुग, अजया, अणहारे मग्गणासु गुणा ॥॥२३॥ -चतुर्थ कर्मग्रन्थ - (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ, गा. २३ विवेचन (पं० सुखलालजी), पृ० ८७ से ८९ . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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