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________________ २३४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ परिहार विशुद्धि संयम में रहकर श्रेणी (उपशमश्रेणी या क्षयकश्रेणी) नहीं की जा सकती। इसलिए उसमें छठा और सातवाँ, ये दो गुणस्थान ही माने जाते हैं। केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों क्षायिक हैं। क्षायिक ज्ञान और क्षायिक-दर्शन ये दोनों तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान में होते हैं। इसी कारण केवलद्विक में दो गुणस्थान माने जाते हैं। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिद्विक चौथे से लेकर बारहवें गुणस्थान में पाए जाते हैं; क्योंकि सम्यक्त्व प्राप्त होने से पहले अर्थात्-प्रथम तीन गुणस्थानों में मति आदि अज्ञानरूप ही हैं और अन्तिम दो गुणस्थानों में क्षायिक उपयोग होने इनका अभाव ही हो जाता है। . यहाँ अवधिज्ञान में ९ गुणस्थान प्ररूपित किये गए हैं वे कार्मग्रन्थिक मतानुसार समझने चाहिए, क्योंकि कार्मग्रन्थिक विद्वान् प्रथम तीन गुणस्थानों में अवधिदर्शन नहीं मानते। वे कहते हैं-विभंगज्ञान से अवधि-दर्शन को भिन्न नहीं समझना चाहिए। परन्तु सिद्धान्तमतानुसार उसमें और भी तीन गुणस्थान मानने चाहिए, क्योंकि वे विभंगज्ञान से अवधि दर्शन को पृथक् मानते हैं, इस कारण आदि के तीन गुणस्थानों में भी अवधिदर्शन मानते हैं। उपशम-सम्यक्त्व में आठ गुणस्थान माने हैं, इनमें से चौथा, पाँचवा, छठा, सातवाँ ये चार गुणस्थान होते हैं, जो ग्रन्थिभेदजन्य प्रथम सम्यक्त्व प्राप्ति के समय चतुर्थ गुणस्थान से शुरू होते हैं। तत्पश्चात् आठवाँ, नौवाँ, दसवाँ और ग्यारहवाँ ये चार गुणस्थान, उपशमश्रेणी करते समय होते हैं। इस प्रकार ये आठ गुणस्थान होते वेदक (क्षायोपशमिक) सम्यक्त्व में चौथे से लेकर सातवें तक चार ही गुणस्थान होते हैं, क्योंकि वेदक सम्यक्त्व तभी होता है, जब सम्यक्त्व-मोहनीय का उदय हो। सम्यक्त्व मोहनीय का उदय श्रेणि का आरम्भ न होने तक (सातवें गुणस्थान तक) रहता है। इसी कारण वेदक सम्यक्त्व में चार ही गुणस्थान पाये जाते हैं। क्षायिक सम्यक्त्व में चौथा आदि ग्यारह गुणस्थान होते हैं। क्षायिक सम्यक्त्व चौथे, पाँचवें गुणस्थान से प्राप्त होता है, और वह चौदहवें गुणस्थान तक सदैव स्थायी रहता है, इसीलिए क्षायिक सम्यक्त्व में चौथे से लेकर चौदहवें तक ग्यारह गुणस्थान माने गए हैं। १. (क) मण नाणि सग जयाई, समइय- छेय चउ दुन्नि परिहारे। केवलदुगि दो चरमा, जयाई, नव मइ-सुओहि दुगे॥ २१॥ -चतुर्थ कर्मग्रन्थ . (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ, गा. २१ विवेचन, (पं० सुखलाल जी), पृ० ८४, ८५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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