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________________ २३६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ बताया गया? इसका समाधान यह है कि यों तो मनोयोग तथा वचनयोग काययोग से पृथक् नहीं हैं, अपितु काययोग-विशेष ही हैं। जो काययोग मनन करने में सहायक होता है, वही उस समय मनोयोग और जो काययोग भाषा के बोलने में सहकारी होता है, वही उस समय वचनयोग माना जाता है। सारांश यह है कि व्यवहार के लिए ही काययोग के तीन भेद किये गये हैं।१ मिथ्यात्वत्रिक (अर्थात्-मिथ्यादृष्टि, सास्वादन और मिश्रगुणस्थान) में, देशविरति में, तथा सूक्ष्मसम्पराय चारित्र में अपना-अपना एक-एक गुणस्थान है। अर्थात्-पहला. ही गुणस्थान मिथ्यात्वरूप, दूसरा ही गुणस्थान सास्वादन भाव रूप, तीसरा ही मिश्रदृष्टिरूप; पांचवाँ ही देशविरतिरूप और दसवाँ ही एकमात्र सूक्ष्मसम्पराय चारित्र रूप है। अर्थात्- इन पाँचों में अपना-अपना एक-एक गुणस्थान कहा है। ___ तीन प्रकार का योग, आहारक और शुक्ललेश्या, इन छह मार्गणास्थानों में तेरह गुणस्थान होते हैं, क्योंकि चौदहवाँ गुणस्थान अयोगीरूप होने से उसमें न तो किसी प्रकार का योग रहता है, न किसी तरह का आहार ग्रहण किया जाता है, और न लेश्या ही सम्भव है। योग में तेरह गुणस्थानों का कथन सामान्य योगत्रय की अपेक्षा से किया गया है; सत्य-मनोयोग आदि विशिष्ट पन्द्रहरे योगों की अपेक्षा से गुणस्थान इस प्रकार है- . (१) सत्यमन, असत्यामृषा मन, सत्यवचन, असत्यामृषा वचन, और औदारिक, इन पाँच योगों में तेरह गुणस्थान हैं। (२) असत्यमन, मिश्रमन, असत्यवचन और मिश्रवचन, इन चारों योगों में आदि के १२ गुणस्थान हैं। (३) औदारिकमिश्र तथा कार्मण काययोग में पहला, दूसरा, चौथा और तेरहवाँ, ये चार गुणस्थान हैं। (४) वैक्रिय काययोग में पहले सात और वैक्रियमिश्र काययोग में पहला, दूसरा, चौथा, पाँचवाँ और छठा, ये पाँच गुणस्थान हैं। (५) आहारक काययोग में छठा और सातवाँ, ये दो और आहारकमिश्र काययोग में केवल छठा गुणस्थान है। असंज्ञियों में पहले दो गुणस्थान पाये जाते हैं। कृष्ण, नील और कापोत, इन तीन लेश्याओं में पहले के ६ गुणस्थान और तेज और पद्म इन दो लेश्याओं में आदि के ७ गुणस्थान हैं। अनाहारक मार्गणास्थान में आदि के दो, अन्तिम दो और अविरत १. चतुर्थ कर्मग्रन्थ, द्वितीयाधिकार परिशिष्ट 'ज' (पं० सुखलालजी), पृ० १३५ . २. योगों के लक्षणों के लिए देखें, इससे पूर्व का निबन्ध। -सं० ३. (क) अड उवसम्मि चउ वेयगि, खइए इक्कार मिच्छ तिगि देसं। . सुहमे य सठाणं तेरस जोग आहार सुक्काए॥२२॥ -चतुर्थ कर्मग्रन्थ (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ, गा. २२ विवेचन (पं० सुखलाल जी), पृ० ८५ से ८७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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