SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२८ · कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ अवस्था में औपशमिक सम्यक्त्व पाया जाता है। संज्ञि मार्गणा में दो संज्ञि-जीवस्थान के सिवाय अन्य कोई जीवस्थान सम्भव नहीं है, क्योंकि अन्य सब-जीवस्थान असंज्ञी ही हैं। देवगति आदि उपर्युक्त मार्गणाओं में अपर्याप्त संज्ञी का मतलब करण-अपर्याप्त से है, लब्धि-अपर्याप्त से नहीं। इसका कारण यह है कि देवगति और नरक गति में लब्धि-अपर्याप्त से कोई जीव पैदा नहीं होते, और न लब्धि-अपर्याप्त को, मति आदि ज्ञान, पद्म आदि लेश्या तथा सम्यक्त्व होता है। निष्कर्ष यह है कि देवगति, नरकगति, विभंगज्ञान, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान; अवधिज्ञान, अवधिदर्शन, तीन सम्यक्त्व, दो लेश्याएँ (पदम और शुक्ल), और संज्ञित्व, इन तेरह मार्गणाओं में अपर्याप्तसंज्ञी और पर्याप्तसंज्ञी, ये दो जीवस्थान होते हैं। मनुष्य गति में पूर्वोक्त संज्ञिद्विक (अपर्याप्त और पर्याप्त संज्ञी) तथा अपर्याप्त असंज्ञी; ये तीन जीवस्थान हैं। मनुष्य दो प्रकार के हैं-गर्भज और सम्मच्छिम। सभी गर्भज मनुष्य संज्ञी ही होते हैं, वे पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों प्रकार के पाये जाते हैं। पर सम्मच्छिम मनुष्य, जो ढाई द्वीप-समुद्र में गर्भज मनुष्यों के मल-मूत्र, शुक्रशोणित आदि में पैदा होते हैं, जिनकी आयु अन्तर्मुहूर्तप्रमाण ही होती है; वे स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना ही मर जाते हैं। इसी कारण उन्हें लब्धि-अपर्याप्त तथा असंज्ञी ही माना गया है। इसलिए मनुष्यगति में सामान्यरूप से उपर्युक्त तीन ही जीवस्थान माने जाते हैं। तेजोलेश्या में बादर अपर्याप्त और संज्ञिद्विक, ये तीन जीवस्थान हैं, क्योंकि तेजोलेश्या पर्याप्त और अपर्याप्त, दोनों संज्ञियों में पाई जाती है। तथा वह बादर एकेन्द्रिय में भी अपर्याप्त अवस्था में पाई जाती है। इसी अपेक्षा से तेजोलेश्या में तीन जीव स्थान माने गये हैं। बादर एकेन्द्रिय को अपर्याप्त अवस्था में तेजोलेश्या मानी जाती है, वह इस अपेक्षा से कि भवनपति, व्यन्तर आदि देव, जिनमें तेजोलेश्या संभव है, वे जब तेजोलेश्या-सहित मरकर पृथ्वी, पानी या वनस्पति में पैदा होते हैं, तब उनके अपर्याप्त (करण-अपर्याप्त) अवस्था में कुछ काल तक तेजोलेश्या रहती है। पहले चार जीवस्थान के सिवाय अन्य किसी जीवस्थान में एकेन्द्रिय तथा स्थावरकायिक जीव नहीं हैं। इसी से एकेन्द्रिय और पाँच स्थावरकाय, इन ६ मार्गणाओं में पहले चार जीवस्थान माने गए हैं। . १. (क) ...........सुर-नरय-विभंग-मइ-सुओहि दुगे। सम्मन्त-तिगे पम्हा-सुक्कासन्नीसु सन्निदुगं ॥१४॥ तयसंनि-अपज्जजुयं, नरे सबायर-अपज्जते ऊए । थावर-इगिंद, पढमा, चउ बार असन्नि दु दु विगले ।।१५॥ -चतुर्थ कर्मग्रन्थ, गा. १४, १५ (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा.१४, १५ का विवेचन (पं० सुखलालजी) पृ० ६८ से ७३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy