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________________ मार्गणास्थान द्वारा संसारी जीवों का सर्वेक्षण - २ २२७ श्रुतज्ञान, अवधिद्विक ( अवधिज्ञान, अवधिदर्शन), औपशमिक आदि तीन सम्यक्त्व और पद्म - शुक्ल लेश्या, इन नौ मार्गणाओं में भी संज्ञीद्विक जीवस्थान माने गए हैं, क्योंकि किसी असंज्ञी में सम्यक्त्व सम्भव नहीं है और सम्यक्त्व के बिना मतिज्ञानश्रुतज्ञान आदि का होना सम्भव नहीं । इसी प्रकार संज्ञी के सिवाय अन्य जीवों में पद्म- शुक्ल लेश्या - योग्य परिणाम हो नहीं सकते । अपर्याप्त अवस्था में मति - श्रुतज्ञान और अवधिद्विक इसलिए माने जाते हैं कि कतिपय जीव तीन ज्ञान-सहित जन्मग्रहण करते हैं। जो जीव आयु बांधने के बाद क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है, वह बंधी हुई आयु के अनुसार चार गतियों में से किसी भी गति में जाता है। इसी अपेक्षा से अपर्याप्त अवस्था में क्षायिक सम्यक्त्व माना जाता है। उस अवस्था में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व मानने का कारण यह है कि भावी तीर्थंकर आदि, जब देव आदि गति से निकल कर मनुष्य जन्म ग्रहण करते हैं, तब वे क्षायोपशमिक सम्यक्त्व - सहित होते हैं । औपशमिक सम्यक्त्वी भी आयुष्य पूर्ण हो जाने से जब ग्यारहवें गुणस्थान से च्युत होकर अनुत्तर विमान में जन्म लेता है, तब अपर्याप्त - (पृष्ठ २२६ का शेष) कि यद्यपि संज्ञिपंचेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य को अपर्याप्त अवस्था में विभंगज्ञान उत्पन्न नहीं होता और न उन असंज्ञी जीवों को अपर्याप्त अवस्था में विभंगज्ञान ज्ञान उत्पन्न होता है, जो मरकर रत्नप्रभा नरक में नारक जन्म लेते हैं । परन्तु सामान्य दृष्टि से विभंगज्ञान में दो जीवस्थान समझने चाहिए, क्योंकि जो संज्ञीजीव, मरकर देव या नारक रूप से पैदा होते हैं, उन्हें अपर्याप्त अवस्था में भी विभंगज्ञान होता है। कर्मग्रन्थ भा. ४ टिप्पणी पृ० ६९ १. चतुर्थ कर्मग्रन्थ, गा. १४ विवेचन (पं० सुखलाल जी), पृ० ६८-६९ २. इस मन्तव्य से कतिपय आचार्यों का विरोध है। उनका कहना है कि अपर्याप्त अवस्था में औपशमिक सम्यक्त्व नहीं होता; क्योंकि औपशमिक सम्यक्त्व की अवस्था में 1. आयुबन्ध और मरण नहीं होता, तब अपर्याप्त अवस्था में औपशमिक सम्यक्त्व कैसे हो संकता है? परन्तु पंचम कर्मग्रन्थानुसार जो उपशम सम्यक्त्वी उपशम श्रेणी में मरता है, वह मरण के प्रथम समय में सम्यक्त्वमोहनीय पुंज को उदयावलिका में लाकर उसे वेदता है, इस कारण वह अपर्याप्त अवस्था में औपशमिक सम्यक्त्वी न रहकर क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी बन जाता है। तीसरी बात - जीवविजय जी द्वारा उद्धृत निम्नोत गाथा-(“उवसमसेढिं पत्ता, मरंता उवसमगुणेसु जे सत्ता । ते लवसत्तमदेवा सेवट्ठे खय- समत्त - जुआ । ") के अनुसार जो जीव उमशमश्रेणी को पाकर ग्यारहवें गुणस्थान में मरते हैं वे सर्वार्थसिद्ध विमान में क्षायिक - सम्यक्त्वयुक्त ही पैदा होते हैं, वे 'लवसप्तम' देव कहलाते हैं। सात लव प्रमाण आयु कम होने से वे लव सप्तम कहे जाते हैं। यदि सात लव प्रमाण आयु कम न होती तो वे देव न बनकर उसी जन्म में मोक्ष जाते । -वही, टिप्पणी पृ० ७१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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