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________________ मार्गणास्थान द्वारा संसारी जीवों का सर्वेक्षण - २ २२९ चौदह जीवस्थानों में से दो ही जीव-स्थान संज्ञी हैं । इसी कारण असंज्ञि मार्गणा बारह जीवस्थान समझने चाहिए। प्रत्येक विकलेन्द्रिय में अपर्याप्त तथा पर्याप्त दो-दो जीवस्थान पाये जाते हैं । इसी से विकलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय - चतुरिन्द्रिय) - मार्गणा में दो-दो जीवस्थान माने गए हैं। काय में अन्तिम दस जीवस्थान हैं। चौदह जीवस्थानों में से अपर्याप्त और पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय तथा अपर्याप्त और पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, इन चारों के सिवाय शेष दस जीवस्थान त्रसकाय में हैं, क्योंकि इन दस में ही बसनामकर्म का उदय होता है। अविरति, आहारक, तिर्यञ्चगति, काययोग, चार कषाय, मतिश्रुत - अज्ञानद्वय, कृष्णादि तीन आदि की लेश्याएँ, भव्यत्व, अभव्यत्व, अचक्षुदर्शन, नपुंसकवेद और मिथ्यात्व, इन १८. मार्गणाओं में सभी (चौदह ही) जीवस्थान पाये जाते हैं; क्योंकि सब प्रकार के जीवों में ये मार्गणाएँ सम्भव हैं। मिथ्यात्व में सभी जीवस्थान कहे हैं, यानी सभी जीवस्थानों में सामान्यतः मिथ्यात्व कहा है, किन्तु बारह जीवस्थानों में अनाभोग मिथ्यात्व समझना चाहिए; क्योंकि उनमें अनाभोग ( अज्ञान - ) जन्य अतत्त्व रुचि है। पंचसंग्रह के अनुसार उनका मिथ्यात्व अनाभिग्रहिक भी कहा है। केवलद्विक, सामायिक आदि पाँच संयम, मनःपर्यायज्ञान, देश - विरति, मनोयोग तथा मिश्र - सम्यक्त्व; इन ग्यारह मार्गणाओं में सिर्फ पर्याप्त संज्ञी जीवस्थान है, क्योंकि पर्याप्त संज्ञी जीवों के सिवाय अन्य प्रकार के जीवों में न सर्वविरति का सम्भव है, • और न देशविरति का। अतएव संज्ञिभिन्न जीवों में केवलद्विक, पाँच संयम, देशविरति और मन: पर्यायज्ञान, जिनका सम्बन्ध विरति से है, वे हो ही नहीं सकते। इसी प्रकार पर्याप्त संज्ञी के सिवाय अन्य जीवों में तथाविध- द्रव्यमन ' का सम्बन्ध न होने के कारण मनोयोग नहीं होता और न ही मिश्र - सम्यक्त्व की योग्यता होती है। वचनयोग में (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा असंज्ञिपंचेन्द्रिय और संज्ञि पंचेन्द्रिय) ये अन्तिम पाँच पर्याप्त जीवस्थान हैं। चक्षुदर्शन में पर्याप्त तीन (चतुरिन्द्रिय, असंज्ञि-पंचेन्द्रिय, संज्ञि पंचेन्द्रिय) जीवस्थान हैं। एकेन्द्रिय में भाषापर्याप्ति नहीं होती । भाषापर्याप्ति के बिना वचन योग सम्भव नहीं होता । द्वीन्द्रिय आदि उक्त पाँच जीवस्थानों में भाषा - पर्याप्ति होने से वचनयोग सम्भव है। आँख वाले जीव १. दस चरम-तसे अजयाहारगतिरि-तणु - कसाय - दुअनाणे । पढम- तिलेसा-भवियर-अचक्खु - नपुमिच्छे सव्वे वि ॥१६ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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