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मार्गणास्थान द्वारा संसारी जीवों का सर्वेक्षण - १ २२३
तथा मिथ्यात्वजन्य अतिशयों को देखकर कभी विस्मित या शंकित नहीं होता है। क्षायिक सम्यक्त्व यदि आयुबन्ध करने के बाद प्राप्त होता है तो वह जीव तीन या चार भव में मोक्ष प्राप्त कर लेता है, परन्तु यदि अगले भव की आयु बाँधने से पहले जिसको यह ( क्षायिक) सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है, तो वह वर्तमान (उसी) भव में ही मुक्ति प्राप्त कर लेता है। क्षायिक सम्यक्त्व जिनकालिक मनुष्यों को प्राप्त होता है। यह तथ्य पंचसंग्रह तथा लब्धिसार में प्रतिपादित किया गया है।
(४) सासादन (सास्वादन) सम्यक्त्व - औपशमिक सम्यक्त्व का त्याग कर मिथ्यात्व के अभिमुख होने के समय जीव का जो परिणाम होता है, उसे सासादन सम्यक्त्व कहते हैं। इसकी स्थिति जघन्य एक समय की, उत्कृष्ट छह आवलिकाओं की होती है। इस सम्यक्त्व के दौरान जीव के परिणाम निर्मल नहीं रहते, क्योंकि अनन्तानुबन्धी कषायों का उदय रहता है। इस कारण सम्यक्त्व की विराधना होती है। सासादन सम्यक्त्व में तत्त्वरुचि अव्यक्त होती है, जबकि सम्यक्त्व में व्यक्त, यही इन दोनों में अन्तर है । इसके अतिरिक्त औपशमिक सम्यक्त्व के समय आयुबन्ध, मरण, अनन्तानुबन्धी कषाय का बन्ध तथा उदय, ये चार बातें नहीं होती हैं; जबकि उससे च्युत (पतित) होने के बाद सासादन सम्यक्त्व के समय में ये चारों बातें हो सकती हैं।
(५) मिश्र - सम्यक्त्व - सम्यग् - मिथ्यात्व - मोहनीय कर्म के उदय से तत्त्व और अतत्त्व, इन दोनों की रुचिरूप जो मिश्र परिणाम होता है, वह मिश्रसम्यक्त्व कहलाता है। इस सम्यक्त्व में न तो मिथ्यात्वरूप आत्मपरिणाम होते हैं और न सम्यक्त्वरूप ही; अपितु दोनों के मिले-जुले (मिश्रित) परिणाम होते हैं।
(६) मिथ्यात्व-मिथ्यात्व - मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला आत्मपरिणाम मिथ्यात्व है। इस परिणाम वाला जीव तत्त्वार्थ के प्रति श्रद्धान नहीं कर पाता । वह जड़-चेतन के भेद को भी नहीं जानता, मूढ़दृष्टि होता है, उसकी प्रवृत्ति आत्मोन्मुखी नहीं होती । हठाग्रह, कदाग्रह, पूर्वाग्रह आदि दोष इसी के फल हैं।
(१३) संज्ञी - मार्गणा के भेद और उनका स्वरूप
संज्ञित्व - विशिष्ट मनःशक्ति, अर्थात् - दीर्घकालिकी संज्ञा का होना संज्ञित्व है और संज्ञायुक्त जीव संज्ञी कहलाते हैं।
१. (क) चतुर्थ कर्मग्रन्थ, गा. १३ विवेचन ( मरुधरकेसरीजी) पृ. १३४ से १३७ (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा. १३ विवेचन (पं. सुखलालजी) पृ. ६६-६७ (ग) दंसण - खवणस्सरिहो जिणकालीयो पुमट्ठवासुवरिं, इत्यादि ।
(घ) दंसणमोहक्खवणा-पट्ठवगो कम्मभूमिजो मणुसो । तित्थयर - पायमूले, केवलि - सुदकेवलि-मूले ॥११०॥
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- पंचसंग्रह १३६५
- लब्धिसार
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