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________________ २२२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ सम्बन्ध टूट जाना और उपशम यानी कर्म का अपने स्वरूप में आत्मा के साथ संलग्न ( सत्ता में ) रहकर भी उस पर असर न डालना । इसलिए क्षयोपशम में उपशम का अर्थ सिर्फ विपाकोदय सम्बन्धी योग्यता का अभाव या तीव्र रस का मन्दरस में परिणमन होना है जबकि औपशमिक के उपशम शब्द का अर्थ-पटेशोटय और विपाकोदय दोनों का अभाव है। क्षयोपशम में कर्म का क्षय भी चालू रहता है, और वह प्रदेशोदयरूप होता है; किन्तु उपशम में यह बात नहीं है, क्योंकि जब कर्म का उपशम होता है, तभी से उसका क्षय रुक जाता है । अतएव इसके प्रदेशोदय होने की आवश्यकता नहीं रहती है । निष्कर्ष यह है कि क्षयोपशम के समय प्रदेशोदय या मंदविपाकोदय होता है; जबकि उपशम के समय वह भी नहीं होता है । औपशमिकं सम्यक्त्व के समय दर्शनमोहनीय के किसी भी प्रकार का उदय नहीं होता, किन्तु क्षयोपशम सम्यक्त्व के समय सम्यक्त्व - मोहनीय का विपाकोदय और मिथ्यात्वमोहनीय का प्रदेशोदय होता है। यही कारण है कि औपशमिक सम्यक्त्व को भाव सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को द्रव्य - सम्यक्त्व भी कहते हैं । इसके अतिरिक्त इन दोनों में यह विशेषता भी है कि उपशम और क्षयोपशम होने योग्य सिर्फ घाति कर्म हैं, लेकिन औपशमिक सम्यक्त्व में तो घातिकर्मों में से सिर्फ मोहनीय कर्म का उपशम होता है, किन्तु क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में सभी घाति कर्मों का क्षयोपशम होता है । (३) क्षायिक सम्यक्त्व - अनन्तानुबन्धी- चतुष्कं और दर्शनमोहनीयत्रिक, इन सात प्रकृतियों के क्षय से आत्मा में जो तत्त्वरुचि रूप परिणाम प्रगट होता है, वह क्षायिक सम्यक्त्व है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव कभी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं करता १. (क) चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा. १३ विवेचन, (पं. सुखलालजी), पृ. ६६ (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा. १३ विवेचन ( मरुधरकेसरीजी), पृ. १३५-१३६ (ग) तत्रोदीर्णस्य मिथ्यात्वस्य क्षयेण अनुदीर्णस्य चोपशमेन निष्काम्भितोदयस्वरूपेणयन्निर्वृत्तं तत् क्षायोपशमिकम् ।' - चतुर्थ कर्मग्रन्थ स्वोपज्ञ टीका पृ. १३८ (घ) मिच्छत्तं जमुइन्नं तं खीणं, अणुदियं च उवसंतं । मिसी भाव-परिणयं वेइज्जंतं खओवसमं ॥ - विशेषावश्यक, ५३२ (ङ) अनन्तानुबन्धि-कषाय-चतुष्टयस्य मिथ्यात्व-सम्यङ्मिथ्यात्वयोरुदयक्षयात् सदुपशमाच्च सम्यक्त्वस्य देशघाति - स्पर्धकस्योदये तत्त्वार्थश्रद्धानं क्षायोपशमिकं - सर्वार्थसिद्धि २/५/१५७ सम्यक्त्वम्। (च) दंसणमोहस्सुदए उवसंते सच्चभावसद्दहणं । –सं. –पंचसंग्रह १६५ उवसम सम्मत्तमिणं पसण्णकलुसं जहा तोयं ॥ (छ) ग्रन्थिभेदजन्य उपशम सम्यक्त्व को प्रथम उपशम सम्यक्त्व भी कहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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