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२०० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
वीर्य (आत्मशक्ति) आदि स्वाभाविक गुण उसमें किसी न किसी रूप में रहते हैं, किन्तु कर्मयुक्त होने के कारण परभाविक पर्यायें तथा वैभाविक गुण उसके साथ तब, तक लगे रहते हैं, जब तक कि वे पूर्णतया कर्ममुक्त, सिद्ध, बुद्ध एवं अयोगी नहीं हो जाते। अतः आत्मार्थी मुमुक्षु एवं जिज्ञासु जीवों को उन सब स्वाभाविक- वैभाविक अवस्थाओं, पर्यायों या रूपों का बोध कराने के लिए सर्वज्ञ आप्त पुरुषों ने १४ प्रकार के मार्गणास्थान बताये हैं, जिनके माध्यम से जीवों की विभिन्न पर्यायों का भलीभांति सर्वेक्षण - अन्वेषण किया जा सकता है। मार्गणा के द्वारा समस्त जीवराशि के भावों तथा पर्यायों अवस्थाओं का अन्वेषण किया जा सकता है।
वस्तुत: लोक में विद्यमान जीवों के अन्वेषण - सर्वेक्षण का मुख्य आधार है, उनके बाह्य आकार-प्रकार की कर्मजन्य विभिन्न अवस्थाएँ, साथ ही उनमें विद्यमान स्वाभाविक-वैभाविक भावों के विविध रूप । केवल बाह्य आकार-प्रकार से युक्त . कर्मजन्य अवस्था - विशेष से किये जाने वाले अन्वेषण से उन समस्त जीवों के स्वाभाविक - वैभाविक भावों- आन्तरिक परिणामों का ग्रहण बोध नहीं हो पाता। यदि बाह्य शरीर, इन्द्रिय आदि कर्मजन्य अवस्थाओं को छोड़कर केवल आत्मिक भावों अथवा आत्मा के स्वाभाविक - वैभाविक भावों- आन्तरिक परिणामों की अपेक्षा से ही अन्वेषण किया जाए तो उक्त अन्वेषण से बाह्य शरीरादि की विभिन्नता वाले कर्मोपाधिक जीवों की अवस्थाओं का बोध नहीं होगा। इसलिये मार्गणास्थान में मुख्यतया समस्त संसारी जीवों की शरीर, इन्द्रिय आदि आकार - प्रकार की विभिन्नता रखने वाले जीवों की बाह्य अवस्थाओं के साथ ही गौणरूप से उन जीवों की आन्तरिक भावों की अवस्थाओं का बोध कराने हेतु मार्गणास्थानों की प्ररूपणा की गई है।
मार्गणास्थान के बोध से यह ज्ञात हो जाता है कि सभी मार्गणाएँ जीव की स्वाभाविक अवस्थारूप नहीं हैं । केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, और अनाहारकत्व के सिवाय अन्य सब मार्गणाएँ न्यूनाधिक रूप में अस्वाभाविक हैं। अतएव स्वरूप की पूर्णता के इच्छुक जीवों के लिए तो अन्त में वे हेय ही हैं ।
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मार्गणास्थान और गुणस्थान में अन्तर
दूसरी बात - मार्गणा में किया जाने वाला विचार कर्म की अवस्थाओं के तरतमभाव का सूचक नहीं है, अपितु शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक
१. (क) चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा. १९ का विवेचन ( मरुधरकेसरीजी) पृ. ९९ (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ, भूमिका से भावांशग्रहण, (पं. सुखलालजी) पृ. ९
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