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________________ १८० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ अपेक्षा से और सिद्धसेन दिवाकर का पक्ष संग्रहनय की अपेक्षा से संगत जानना चाहिए। पर्याप्त चतुरिन्द्रिय तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय में चार उपयोग : क्यों और कैसे? पर्याप्त चतुरिन्द्रिय और पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय में चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन तथा मतिअज्ञान और श्रुत-अज्ञान, ये चार उपयोग होते हैं। इसका कारण यह है कि इनके पहला मिथ्यात्व गुणस्थान होता है। अतः आवरण की सघनता के कारण चक्षुर्दर्शन और अचक्षुर्दर्शन के अतिरिक्त अन्य दर्शनोपयोगों की, तथा मति-अज्ञान और श्रुतअज्ञान के सिवाय अन्य ज्ञानोपयोगों की सम्भावना नहीं है। इसलिएं उपर्युक्त चार उपयोग ही इन दोनों प्रकार के जीवों में माने जाते हैं। सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि दस जीव-स्थानों में भी पर्याप्त चतुरिन्द्रिय व असंज्ञी पंचेन्द्रिय में माने गए चार उपयोगों में से चक्षुर्दर्शन नहीं होने से सिर्फ अचक्षुर्दर्शन, मति-अज्ञान एवं श्रुत-अज्ञान, ये तीन उपयोग ही होते हैं। निष्कर्ष यह है कि (१) सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, (२) सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, (३) बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, (४) बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, (५) द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, (६) द्वीन्द्रिय पर्याप्त, (७) त्रीन्द्रिय अपर्याप्त, (८) त्रीन्द्रिय पर्याप्त, (९) चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त और (१०) असंज्ञी १. (क) ते च क्रमेणैव, न तु युगपत् उपयोगानां तथा जीव-स्वभावतो यौगपद्याऽ सम्भवात्। उक्तं च-'समए दो णुवओगा' इति। श्री भद्रबाहुस्वामिपादाअप्याहुःनाणम्मि दंसणम्मि य एत्तो एगयरयम्मि उवउत्ता। सव्वस्स केवलिस्सा जुगवं दो नत्थि उवओगा॥ -आवश्यक नियुक्ति गा. ९७९, कर्मग्रन्थ ४ स्त्रो. टीका (ख) जुगवं वट्टइ णाणं केवलणाणिस्स दसणं च तहा। दिणयर-पयास-तावं जह वट्टइ तह मुणेयव्वं॥ -नियमसार १६० (ग) एकस्मिन् समये ज्ञानं, दर्शनं चापरोक्षणे। सर्वज्ञस्योपयोगौ द्वौ समयान्तरितौ सदा॥ -लोकप्रकाश ३/९७३ (घ) दंसणपुव्वं णाणं छदमत्थाणं ण दोण्णि उवउग्गा। जुगवं जम्हा केवलि-णाहे जुगवं तु ते दोवि॥ -द्रव्यसंग्रह ४४ (ङ) सिद्धाणं सिद्धगई केवलणाणं च दंसणं खवियं। सम्मत्तमणाहारं उवजोगा ण क्कमपउत्ती॥ -गोम्मटसार जीवकांड ७३० (य) ज्ञानबिन्दु (उपाध्याय यशोविजयजी), पृ. १६४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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