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________________ जीवस्थानों में गुणस्थान आदि की प्ररूपणा १८१ पंचेन्द्रिय अपर्याप्त; इन दस प्रकार के जीवों के अचक्षुर्दर्शन, मति-अज्ञान और श्रुत- । अज्ञान, ये तीन उपयोग होते हैं। ___ सैद्धान्तिकों का कर्मग्रान्थिकों से इस विषय में मतभेद सैद्धान्तिक मत में कुछ अन्तर है। कर्मग्रान्थिकों के मतानुसार पूर्वोक्त दस जीवस्थानों में तीन उपयोग माने गए हैं, जबकि सैद्धन्तिकों के मतानुसार सभी प्रकार के एकेन्द्रियों (चाहे वे सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त या अपर्याप्त हों) में प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है, परन्तु द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञीपंचेन्द्रिय, इन चार अपर्याप्त जीवस्थानों में प्रथम और द्वितीय यों दो गुणस्थान होते हैं और दूसरे गुणस्थान के समय मति आदि को अज्ञानरूप न मानकर ज्ञानरूप माना है। अतः इन चार अपर्याप्त जीवस्थानों में ५ उपयोग होते हैं। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दो उपयोग अधिक समझने चाहिए। प्रश्न होता है-एकेन्द्रिय जीवों में भाषालब्धि और श्रवणलब्धि न होने से श्रुतज्ञानोपयोग कैसे माना जा सकता है? इसका समाधान यह है कि एकेन्द्रिय वृक्षादि जीवों में स्पर्शेन्द्रिय के सिवाय अन्य द्रव्येन्द्रियों के न होने पर भी पांच भावेन्द्रियों का सद्भाव होने से अस्पष्ट भावश्रुतज्ञान का होना शास्त्रसम्मत है, क्योंकि एकेन्द्रिय जीवों में आहाराभिलाषा होती है। आहाराभिलाषा शब्द और अर्थ के विकल्पपूर्वक होती है। अतः विकल्प के सहित उत्पन्न होने वाला अध्यवसाय भावश्रुत माना गया है। १. (क) कर्मग्रन्थ भा. ४ गा.६ विवेचन (मरुधरकेसरीजी) पृ.७५ ". (ख) सव्व-जियट्ठाण मिच्छे सगसासणिपण अपज्ज-सन्निदुगं। - सम्मे सन्नी दुविहो, सेसेसुं सन्निपज्जत्तो॥ -कर्मग्रन्थ भा. ४ गा. ४५ २. (क) कर्मग्रन्थ भा. ४ गा. ५,६ विवेचन (मरुधरकेसरी) पृ.७६ (ख) भावसुयं भासा-सोयलद्धिणो जुज्जए न इयरस्स। ___भासाभिमुहस्स सुयं सोऊण य जे हविजाहि॥ -विशेषावश्यक, १०२ (ग) जह सुहुमं भाविंदियनाणं दव्विंदियावरोहे वि। तह दव्वसुया भावम्मि वि भावसुयं पत्थिवाईणं॥ -विशेषावश्यक १०३ (घ) आहार संज्ञा आहारभिलाषः, क्षुद्वेदनीयोदय-प्रभवः खल्वात्म-परिणामविशेषः। -आवश्यक हारी. वृत्ति १८०१ (ङ) इंदिय-मणो-निमित्तं जं विण्णाणं सुयाणुसारेणं। निययत्थुत्ति-समत्थं तं भावसुयं मईसेसं॥ -विशेषा. १०० गा. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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