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________________ जीवस्थानों में गुणस्थान आदि की प्ररूपणा १७९ दूसरा मत पक्ष केवलज्ञान और केवलदर्शन को सूर्य के प्रकाश और ताप की -तरह युगपद् सहभावी मानता है। इस मत के समर्थक दिगम्बर सम्प्रदाय तथा श्री मल्लवादी सूरि आदि हैं। उनका मन्तव्य है कि केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण का क्षय युगपत् होता है, तथा पदार्थगत सामान्य-विशेष धर्म भी सहभावी होते हैं; अतः आवरणक्षयरूप निमित्त और सामान्य-विशेषात्मक विषय समकालिक होने से केवलज्ञान और केवलदर्शन युगपत् सहभावी होते हैं, क्रमभावी नहीं। छद्मस्थिक उपयोगों में कार्यकारणभाव या परस्पर प्रतिबन्ध्य-प्रतिबन्धकभाव घटित हो सकता है, क्षायिक उपयोग में नहीं; क्योंकि ज्ञानस्वरूप आत्मा जब पूर्णतः निरावरण हो जाती है, तब उसके दोनों क्षायिक उपयोग निरन्तर ही होने चाहिए। युगपत्-पक्ष में ही इन दोनों क्षायिक उपयोगों की अनन्तता (सादि-अपर्यवसितता) घटित हो सकती . है; क्योंकि दोनों उपयोग इस पक्ष में युगपत् और निरन्तर होते रहते हैं। .. तीसरा मत पक्ष उभय उपयोगों में भेद न मानकर दोनों में अभेद (ऐक्य) मानने वालों का है। इसके पक्षधर हैं-श्री सिद्धसेन दिवाकर। उनका मन्तव्य है कि ज्ञानयोग्य सामग्री प्राप्त होने पर एक ज्ञान-पर्याय में अनेक घट-पटादि प्रतिभासित होते हैं, वैसे ही आवरणक्षय, विषय आदि सामग्री प्राप्त होने पर एक ही कैवल्यउपयोग पदार्थों के सामान्य-विशेष उभय स्वरूप को जान सकता है। जैसे केवलज्ञान के समय मतिज्ञानावरणीय आदि चार ज्ञानों का अभाव होने पर भी मतिज्ञान आदि केवलज्ञान से पृथक नहीं माने जाते, उसी में समाविष्ट हो जाते हैं वैसे ही केवलदर्शनावरण का क्षय होने पर केवलदर्शन को केवलज्ञान से पृथक् मानना उचित नहीं है। विषय और क्षयोपशम की विभिन्नता के कारण छद्मस्थों के ज्ञान और दर्शन में विभिन्नता मानी जा सकती है, किन्तु अनन्तविषयकता और क्षायिक भाव एक समान होने से केवलदर्शन और केवलज्ञान में किसी प्रकार का भेद मानना उचित नहीं। केवलदर्शन को केवलज्ञान से भिन्न मानने पर केवलदर्शन सामान्य विषय मात्र ग्राही होने से वह अल्पविषयवाला सिद्ध होगा, जिससे उसमें अनन्तविषयत्व सिद्ध नहीं होगा। केवली का वत्तनोच्चारण केवलज्ञान-केवलदर्शनपूर्वक होता है, यह कथन अभेद पक्ष में ही घटित हो सकता है। दोनों का आवरणभेद कथंचित् है, आवरण भी वास्तव में एक होने पर भी कार्य और उपाधि-भेद की अपेक्षा से उनका भेद समझना चाहिए। - उपाध्याय यशोविजय जी ने उक्त तीनों मतों का नयी दृष्टि से समन्वय किया है। सिद्धान्त पक्ष शुद्ध ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से, श्री मल्लवादी का पक्ष व्यवहारनय की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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