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________________ १७८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ उत्पत्ति-विनाशात्मक पर्यायों का बोध होता है तथा दर्शनोपयोग से वस्तुगत सामान्यधर्म की-सद्रूप ध्रौव्यात्मकता की प्रतीति होती है। पर्याप्त संज्ञि-पंचेन्द्रिय जीवों में बारह ही उपयोग क्यों? ... पर्याप्त संज्ञिपंचेन्द्रिय जीवों में पूर्वोक्त बारह ही उपयोग पाये जाते हैं। क्योंकि गर्भज मनुष्य संज्ञि-पंचेन्द्रिय हैं, उनमें सब प्रकार के उपयोगों की सम्भावना है। इनमें से केवलज्ञानं और केवलदर्शन उपयोगद्वय की स्थिति समयमात्र की और शेष छाद्मस्थिक दस उपयोगों की स्थिति अन्तर्मुहूर्त की मानी गई है। पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में छद्मस्थों से लेकर केवलज्ञानियों तक का समावेश होता है; इसलिए उनमें समस्त उपयोगों के मानने का कथन सामान्य की अपेक्षा से है। छद्मस्थों के उपयोग क्रमभावी होते हैं-यानी दर्शन के पश्चात् ज्ञानोपयोग।२ । केवली भगवन्तों के उपयोग सहभावी हैं, या क्रमभावी? : तीन पक्ष किन्तु केवलियों के उपयोग सहभावी हैं या क्रमभावी? इसको लेकर तीन मत हैं-(१) सिद्धान्तपक्ष केवलज्ञान-केवलदर्शन को क्रमभावी मानता है, इसके समर्थक जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, भद्रबाहुस्वामी और कार्मग्रन्थिक आदि हैं। आवश्यक नियुक्ति में कहा है-इन दोनों के लक्षण भिन्न-भिन्न हैं, भिन्न-भिन्न आवरण हैं, केवलज्ञान और केवलदर्शन की अनन्तता भिन्न-भिन्न लब्धि की अपेक्षा से है; उपयोग की अपेक्षा से नहीं। उपयोगापेक्षया भी इन दोनों की स्थिति एक समय की है। उपयोगों का स्वभाव ही ऐसा है कि वे क्रमशः प्रवृत्त होते हैं। इसलिए प्रथम मत पक्ष केवलज्ञान और केवलदर्शन को क्रमभावी और पृथक् पृथक् मानता है। १. (क) उपयोग-स्थितिकालोऽन्तर्मुहूर्तपरिमाणः प्रकर्षाद् भवति। -तत्वार्थ-भाष्य २/८ टीका (ख) उपयोगतोऽन्तर्मुहूर्तमेव जघन्योत्कृष्टाभ्याम्। -तत्वार्थभाष्य टीका २/९ (ग) मदि-सुद-ओहि-मणोहिं य सग-सग-विसये विसेस-विण्णाणं। अंतोमुत्तकालो उवजोगो सो दु आयारो॥ - इंदिय-मणोहणि वा अत्थे अविसेसि दूण जं गहणं॥ अंतोमुत्तकालो उवजोगो सो अणायारे॥ -गोम्मटसार जीवकाण्ड ६७४,६७५ २. (क) चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा. ५ विवेचन (मरुधरकेसरीजी), पृ. ७१, ७२ (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा.५ परिशिष्ट व विवचेन (पं. सुखलालजी), पृ. ४३, ४४ - ३. (क) भगवती श. १८/२५ उ.६ (ख) प्रज्ञापना पद ३० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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