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________________ चौदह जीवस्थानों में संसारी जीवों का वर्गीकरण १५९ जीवसमास का स्वरूप गोम्मटस्पर (जीव काण्ड) में कहा गया है-"जिन धर्मों के द्वारा अनेक जीवों तथा उनकी अनेक जातियों का बोध होता है, उन पदार्थों का संग्रह करने वाले धर्मविशेषों को जीवसमास समझना चाहिए।" त्रस-स्थावर, बादर-सूक्ष्म, पर्याप्त, अप्ति, प्रत्येक-साधारण, इन युगलों में अविरुद्ध नामकर्म (जैसे-सूक्ष्म से अविरुद्ध स्थावर) के उदय से युक्त जाति नामकर्म का उदय होने पर जो तद्भव-सादृश्यरूप ऊर्ध्वता-सामान्य जीवों में होता है, वह जीवसमास होता है। संक्षेप में-"जिन स्थानों में जीवों का सद्भाव पाया जाता है, उन स्थानों का नाम जीवसमास है।"१ चौदह जीवस्थान और सब में जीवत्व धर्म का सद्भाव कर्मग्रन्थ के अनुसार इस लोक में सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी-पंचेन्द्रिय और संज्ञी-पंचेन्द्रिय ये सातों अपर्याप्त और पर्याप्त के भेद से दो-दो प्रकार के होने से जीवस्थान चौदह होते हैं।२ प्रस्तुत गाथा में प्ररूपित ये चौदह भेद संसारी जीवों के हैं। जीवत्व-चैतन्यरूप सामान्य धर्म की समानता होने से अनन्त जीव समान हैं-एक जैसे हैं, स्वरूप से वे एक समान हैं। सभी के गुण-धर्म समान (एक सदृश) होने से उनमें किसी प्रकार का भेद नहीं है। इसीलिए सामान्य दृष्टि से जीव का लक्षण चैतन्य या जीवत्व है, तथा चैतन्यानुविधायी परिणाम को उपयोग कहते हैं। यह चैतन्य और उसका उपयोगरूप परिणाम जीव को छोड़कर अन्य द्रव्यों में नहीं पाया जाता। जो जीव की प्रवृत्ति-परिणति में सदैव अन्यत्र रूप में इसका परिणमन होता रहता है। १. (क) जेहिं अणेया जीवा, णजंते बहुविहा वि तज्जादी। .. ते पुण संगहिदत्था, जीवसमासा त्ति विण्णेया॥ -गोम्मटसार (जी.) गा. ७० (ख) दिगम्बर पंचसंग्रह १/३२ (ग) तस-चदु-जुगाण-मज्झे, अविरुद्धेहिं जुद-जादि-कम्मुदये। जीवसमासा होति हु तब्भव-सारिच्छ-सामण्णा॥ -गो. जी. ७१ गा. (घ) कालक्रम से अनेक अवस्थाओं के होने पर भी एक ही वस्तु का जो पूर्वापर सादृश्य देखा जाता है, वह ऊर्ध्वता-सामान्य है। इससे विपरीत एक समय में ही अनेक वस्तुओं की जो परस्पर समानता देखी जाती है, वह तिर्यक-सामान्य २. इय सुहम-बायरेंगिदिवि-ति-चउ-असन्नि-सन्नि-पंचिंदी। अपजत्ता पज्जत्ता कमेण चउदस जियट्ठाणा॥ -कर्मग्रन्थ भा. ४, गा. २ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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