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________________ १५८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ कर्मयुक्त होने से संसारी जीवों की अपेक्षा से जीवस्थान - प्ररूपणा मुक्त जीव कर्मरहित हैं, इसलिए उनमें किसी प्रकार का भेद, या स्वरूप की दृष्टि से अन्तर नहीं है। सभी मुक्त जीव स्व-भाव से परिपूर्ण और समान हैं। किन्तु संसारी जीव कर्मयुक्त होने के कारण उनमें गति, जाति, शरीर आदि विभिन्न अपेक्षाओं से अनेक प्रकार की विभिन्नताएँ, विविधताएँ और विषमताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। वे कर्मजन्य अवस्थाएँ अनन्त हैं । अतः उनका एक-एक जीव की अपेक्षा से ज्ञान करना छद्मस्थ व्यक्ति के लिए न तो सहज है, न ही सम्भव है । किन्तु ज्ञानियों ने जीवस्थान के माध्यम से उनका १४ प्रकारों में वर्गीकरण करके उनमें गति आदि की स्पष्ट प्ररूपणा की है, जिससे उनकी विविध अवस्थाओं का आसानी से बोध हो जाता है । १ जीवस्थान का स्वरूप जीवस्थान कहते हैं-जीवों - अर्थात् सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, संज्ञी, असंज्ञी तथा एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक से संसारी जीवों के इन रूपों द्वारा होने वाले प्रकारों-भेदों को। संक्षेप में, संसारी जीवों के इन वर्गों अर्थात् सूक्ष्म, बादर, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि रूप में होने वाले प्रकारों-भेदों को जीवस्थान कहते हैं । २ जीवस्थान का स्वरूप सर्वज्ञ केवलज्ञानी भगवन्तों ने समस्त संसारी जीवों के एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रिय जाति आदि के रूप में विभागानुसार वर्गीकरण करके चौदह वर्ग बताये हैं । उनमें समस्त संसारी जीवों का समावेश हो जाता है। इन्हीं चौदह वर्गों को जीवस्थान कहते हैं ।३ ४ कर्मविज्ञान के साहित्य में प्रयुक्त जीवस्थान शब्द के बदले में समवायांग आदि आगमों में 'भूतग्राम और दिगम्बर- परम्परा के ग्रन्थों में 'जीवसमास' शब्द का प्रयोग किया है। किन्तु शब्द प्रयोग में अन्तर के सिवाय इनके अर्थ और भेद प्रायः मिलते-जुलते हैं। समवायांग में 'भूतग्राम' शब्द का प्रयोग करके जीवस्थान में जिन १४ जीववर्गों का निर्देश किया है, उन्हीं का उसमें निर्देश किया गया है। १. कर्मग्रन्थ भा. ४ विवेचन ( मरुध्ररकेसरीजी) पृ. १० २. (क) वही, पृ. ९ (ख) पंचसंग्रह भा. १, विवेचन, पृ. ४४ ३. पंच - संग्रह भा. १ विवेचन, पृ. ४४ ४. समवायांग १४/१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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