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१६० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
संसारी जीवों के संक्षेप में पांच प्रकार संसारी जीवों के संक्षेप में पांच ही प्रकार होते हैं, जिन्हें शास्त्रीय परिभाषा में 'जाति' कहा गया है। जैसे-(१) एकेन्द्रिय जाति, (२) द्वीन्द्रिय जाति, (३) त्रीन्द्रिय जाति, (४) चतुरिन्द्रिय जाति और (५) पंचेन्द्रिय जाति। __जाति का अर्थ है-सामान्य। अर्थात्-जिस शब्द के बोलने या सुनने से समस्त समान गुणधर्म वाले पदार्थों का ग्रहण हो जाय। जैसे-एकेन्द्रिय कहने से पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय तक के सभी एकमात्र स्पर्शेन्द्रिय वाले जीवों का ग्रहण या ज्ञान हो जाता है। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय जाति आदि के विषय में समझ लेना चाहिए। एक इन्द्रिय वाले जीव 'स्थावर' तथा द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त के जीव 'स' कहलाते हैं।
इन्द्रियाँ और उनका स्वरूप इन्द्रिय कहते हैं जो अपने-अपने विषय के ज्ञान और ग्रहण (सेवन) करने में स्वतंत्र हो। जैसे-रसनेन्द्रिय अपने विषय (स्वाद) का ग्रहण (ज्ञान) करने में स्वतंत्र है, दूसरी इन्द्रियाँ स्वाद का ग्रहण करने में प्रायः समर्थ नहीं होती। सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने अधीनस्थ विषय को ही प्रायः जान या ग्रहण कर सकती हैं।
द्विविध इन्द्रियों के पांच-पांच भेद : स्वरूप, कार्य प्रज्ञापना आदि आगमों में इन्द्रियों के पांच भेद बताये हैं-श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय। ये इन्द्रियाँ भी द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार की होती हैं। द्रव्येन्द्रियाँ, पुद्गल-जन्य होने से जड़रूप हैं और भावेन्द्रियाँ चेतनाशक्ति की पर्याय होने से भावरूप हैं। द्रव्येन्द्रियाँ अंगोपांग और निर्माण नामकर्म से निर्मित होती हैं। द्रव्येन्द्रिय अपने-अपने विषय में तभी प्रवृत्त हो सकती हैं जब भावेन्द्रियों का उन्हें सहयोग प्राप्त हो। उनकी उत्पत्ति और प्रवृत्ति में कारण हैं-भावेन्द्रियाँ। इस दृष्टि से भावेन्द्रियाँ कारण हैं, द्रव्येन्द्रियाँ कार्य हैं। भावेन्द्रिय के होने पर ही द्रव्येन्द्रियों को इन्द्रिय संज्ञा प्राप्त होती है। भावेन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण करने तथा व्यक्त करने में द्रव्येन्द्रियाँ उपकरणरूप हैं। अर्थात् भावेन्द्रियों की प्रवृत्ति, तथा विषयों को ग्रहण करने और अभिव्यक्त करने की प्रवृत्ति द्रव्येन्द्रियों के माध्यम से होती है। १. (क) कर्मग्रन्थ भा. ४ विवेचन (मरुधरकेसरी) पृ. ३४-३५ (ख) कति णं भंते ! इंदिया पण्णता?
गोयमा ! पंचेंदिया पण्णता, तं.-सोइंदिय चविखदिय घाणिदिय जिन्भिंदिए फासिंदिए।
-प्रज्ञापनासूत्र पद १५/१/१९१
(शेष पृष्ठ १६१ पर)
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