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________________ कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ - २ १३९ आहार-विहार, अत्यधिक सुखशीलता, कामुकता आदि के कारण परहेज बिगड़ जाने ऐसी स्थिति में पहुँच जाए कि यह रोग असाध्य हो जाए, ज्यों-ज्यों दवा ली जाए, त्यों-त्यों अधिक बढ़ता जाए, उसमें कमी न आए, रोग अन्तिम स्टेज में पहुँच जाए, तब उस रोग का कष्ट भोगे बिना प्राणान्त तक कोई छुटकारा ही नहीं होता। वैसे ही जो कर्म इतना गाढ़रूप से बंध जाए कि किसी भी उपाय से उसके दुष्फल से बचना कठिन हो जाए, उसके भोगे बिना कोई चारा न हो, १ वह निकालित अवस्था है। प्रवृत्ति में अत्यधिक गृद्धि ही इसका मूल कारण है । कर्मबन्ध की यह निकाचनावस्था अत्यन्त कठोरतम एवं घातक अवस्था है। इससे बचना तभी सम्भव है, जब किसी प्रवृत्ति में न अत्यन्त राग (आसक्ति, मूर्च्छा) की जाए और न अत्यन्त द्वेष (ईर्ष्या, मात्सर्य, घृणा, वैरविरोध) किया जाए। समय पकने पर जब निकाचित कर्म उदय में आता है, तब उसे प्रायः अवश्य ही भोगना पड़ता है। निकाचनावस्था चार प्रकार की है - (१) प्रकृति निकाचित, (२) स्थिति - निकाचित, (३) अनुभाग- निकाचित और (४) प्रदेश निकाचित।' कर्मबन्ध की निधत्त और निकाचित ये दोनों अवस्थाएं असाध्य रोग के समान हैं। उनमें भी निकाचित तो निधत्त से भी अधिक दुःखद, अप्रतीकारक और प्रबलतर है। मुमुक्षु आत्मार्थी साधक को इनसे बचना ही श्रेयस्कर है। पूर्वोक्त १० अवस्थाओं में उदय और सत्ता को छोड़कर शेष ८ करण होते हैं। करण का अर्थ- प्रयत्न विशेष है । २ कर्म बलवान है या आत्मा ? निधत्त और निकाचित अवस्थाओं को देखते हुए ऐसा लगता है कि आत्मा से कर्म अधिक बलवान् है, जो मनुष्य जैसे बुद्धिमान् प्राणी को नहीं छोड़ता, बांध लेता है। यहाँ प्रश्न होता है कि क्या कर्म बलवान् है, जो आत्मा पर हावी हो जाता है और इसे प्रगाढ़रूप से जकड़ लेता है? जिस प्रकार कर्म को महाशक्तिरूप माना जाता है, उसी प्रकार आत्मा भी अनन्तशक्तिमान् है । फिर क्या कारण है कि कर्म आत्मा की शक्ति को दबा देता है? कर्म की कैद में बंद हो जाने पर आत्मा का वश क्यों नहीं चलता ? : यद्यपि इस विषय में हमने कर्मविज्ञान के तृतीय खण्ड (प्रथम भाग ) में 'कर्म का परतंत्रीकारक स्वरूप' तथा 'क्या कर्म महाशक्ति रूप है?' इन दो निबन्धों १. (क) कर्मसिद्धान्त (कन्हैया लाल जी लोढ़ा), पृ. १४, १५, (ख) धर्म और दर्शन, पृ. ९८ (ग) जैनदर्शन (न्यायविजयजी) पृ. ४५९, (घ) गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) गा. ४४० २. (क) जैनदर्शन (न्याय विजयजी) से पृ. ४५, (ख) स्थानांग सूत्र ४/४९६ (ग) कर्म प्रकृति गा. २ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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