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________________ १३८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ पर भी वह छूट नहीं पाती। भले ही मात्रा में कुछ कमीबेशी हो जाए। इसी प्रकार विषय लोलुपतावश कोई बार-बार मिथ्या आहार-विहार करे, अतिकामुक बनकर अहर्निश कामवासना में डूबा रहे, जिससे उसके शरीर में भगन्दर, क्षय, केंसर, एड्स आदि दुःसाध्य रोग पैदा हो जाएँ, जिन्दगी भर उसी रोग से वह घिरा रहे, भले ही उसमें उतार-चढ़ाव आ जाए। इसी प्रकार जिस वृत्ति-प्रवृत्ति या क्रिया में मन वचन कायरूप योग की प्रवृत्ति इतनी अधिक डूबी रहे, पुनरावृत्ति अधिकाधिक हो, साथ - ही उसमें राग, द्वेष, क्रोधादि कषाय रस की अधिकता हो तो कर्म की ऐसी अवस्था का बन्ध हो जाता है, जिसमें कुछ घट-बढ़ तो हो सके; लेकिन उसका रूपान्तरण तथा अन्य प्रकृतिरूप में परिवर्तन बिलकुल न हो सके, उसके फल को भोगना ही पड़े, वह निधत्त अवस्था है। यह कर्मबन्ध की ऐसी कठोर अवस्था है, जो उदीरणा और संक्रमण आदि करणों की पहुँच से बाहर है। इस अवस्था में सिर्फ उद्वर्तन और अपवर्तन हो सकते हैं। (१०) निकाचनाकरण (निकाचित अवस्था) स्वरूप और कार्य कर्मबन्ध की यह दसवीं अवस्था है। इस अवस्था में कर्म इतने दृढ़तर रूप में बद्ध रहते हैं कि उनमें किंचित् भी रद्दोबदल नहीं हो सकता। अर्थात्-जीव ने जिस रूप में, जिस तीव्रतम रस से कर्म बांधा है, प्रायः उसी रूप में भोगना पड़े। उस रूप में उस बद्धकर्म का फल भोगे बिना निर्जरा हो ही नहीं सकती; ऐसी अवस्था निकाचितकरण की है। ऐसी अवस्था जिसमें जीव को समस्त करणों के अयोग्य कर दिया जाए, वह निकाचनावस्था है। निकाचन अवस्था में उद्वर्तना, अपवर्तना, उदीरणा और संक्रमण तो हो ही नहीं सकते। निकाचनावस्था में कर्मों का बन्ध इतना प्रगाढ़ होता है, कि उनकी कालमर्यादा और तीव्रता (रस मात्रा) में कोई भी परिवर्तन या समय से पूर्व उनका फलभोग नहीं किया जा सकता । इस अवस्था में जीव कर्मों से इतना गाढ़तर रूप में जकड़ जाता है, कि वह कितना ही जोर लगाए, प्रायः उसी रूप में उनका फल भोगे बिना, उन बद्ध कर्मों को पृथक नहीं कर सकता। इसमें इच्छा स्वातंत्र्य का सर्वथा अभाव रहता है। कर्म की यह दशा निधत्तिकरण से भी अधिक प्रबल होती है। कर्म के गाढ़तर बंध की स्थिति किसी प्रवृत्ति में अत्यधिक गृद्धि आसक्ति, प्रगाढ़ मूर्छा और प्रबल लालसा के कारण होती है। जैसे-किसी डायबिटीज, कैंसर, टी०वी० आदि के रोगी द्वारा बार-बार कुपथ्य करने पर, मिथ्या १. (क) पंचम कर्मग्रन्थ प्रस्तावना, पृ. २७, (ख) धर्म और दर्शन पृ. ९८ (ग) कर्म सिद्धान्त (जिनेन्द्र वर्णी), पृ.१३, १४ २. कर्म सिद्धान्त (कन्हैयालाल लोढ़ा) से भावग्रहण, पृ. १३, १४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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