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________________ १४० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ द्वारा इस विषय में विस्तार से चर्चा की है और कर्मशक्ति से आत्मशक्ति को बलवत्तर सिद्ध किया गया है, फिर भी प्रस्तुत प्रसंग पर निकाचित और निधत्त कर्म के प्रसंग में थोड़ा-सा पुन: इस तथ्य पर प्रकाश डालना आवश्यक है । बद्धकर्म के दो रूप आचार्यों ने बताए हैं - निकाचित और दलिक । निकाचित वह है, जिसका विपाक अन्यथा नहीं हो सकता। और दलिक वह है- जिसका विपाक अन्यथा भी हो सकता है । दूसरे शब्दों में इन्हें क्रमशः निरुपक्रम और सोपक्रम भी कहा गया है। निरुपक्रम का अर्थ है - जिसका कोई भी प्रतीकार न हो सके तथा जिसका उदय ( फलदान) अन्यथा न हो सके। और सोपक्रम वह है- जो उपचारसाध्य हो । निकाचित कर्मोदय की अपेक्षा तो जीव बिलकुल कर्माधीन ही होता है, किन्तु दलिक की अपेक्षा दोनों बातें हैं-(१) जहाँ जीव धृति - शरीर - मनोबल की सहायता से सम्यक् दिशा में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार ( पौरुष = पुरुषार्थ ) और पराक्रम करता है, वहाँ कर्म उसके अधीन हो जाता है, और (२) जहाँ जीव उसे सम्यक् रूप से परिवर्तन करने के लिए कोई उत्थानादि सत्पुरुषार्थ नहीं करता, वहाँ वह स्वयं कर्म के अधीन हो जाता हैं। यह सत्य है कि आत्मा अनन्तशक्तिमान् है, परन्तु जब तक आत्मा स्वयं जागृत होकर अपना भान नहीं करता, अपने को कायर समझ कर कर्म के आगे घुटने टेक देता है, तब कर्म उस पर हावी हो जाता है। पूर्वोक्त ८ करणों के स्वरूप और कार्य को देखते हुए यह नि:सन्देह कहा जा सकता है कि यदि कर्म के उदय में आने से पूर्व वह सावधान एवं जागृत हो जाए तो कर्म को अशुभ से शुभ में बदल सकता है, उसकी स्थिति और अनुभाग को घटा सकता है, उदीरणा करके उदयकाल से पूर्व कर्म को उदय में लाकर उसे तोड़ सकता है, उसके उदय को उपशान्त करके समता और शमता का विकासानुभव कर सकता है, क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होकर मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय करने के साथ ही शेष घातिकर्मों का भी सर्वथा क्षय कर सकता और परमात्मा केवली वीतराग बन सकता है । परन्तु यह सब न होता तो पूर्वबद्ध कर्मों को संयम और तप से क्षय करना कर्म की फलशक्ति और स्थिति को शीघ्र तोड़ने का उपक्रम क्यों किया जाता है। अतः यह निर्विवाद कहा जा सकता है बंध से मुक्ति की यात्रा में मुमुक्षु यात्री अप्रमत्त और सावधान होकर आगे बढ़े तो नि:संदेह कर्मों की शक्ति को परास्त करके विजयी बन सकता है । १ १. (क) देखें - कर्मविज्ञान भा-१, खण्ड ३ में "कर्म का परतंत्रीकारक " तथा "क्या कर्म महाशक्तिरूप है?" लेख (ख) देखें - जैनदर्शन : मनन और मीमांसा, पृ. ३२१, ३२२ For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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