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________________ १३४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ है - अशुभ प्रकृति का शुभ प्रकृति में, तथा शुभ ( उदात्त ) प्रकृति का अशुभ ( कुत्सित) प्रकृति में | उदात्त प्रकृत्ति का कुत्सित प्रकृति में रूपान्तरण अनिष्टकारी है, जबकि कुत्सित प्रकृति का उदात्त प्रकृति में रूपान्तरण हितकारी है। संक्रमण प्रयोग से विकार का संस्कार में परिवर्तन कर्मविज्ञान के अनुसार पहले बंधी हुई ( अभ्यस्त ) प्रकृतियों (स्वभावों या आदतों) को, वर्तमान में बध्यमान (बंधने वाली) प्रकृतियों (आदतों या स्वभावों) में संक्रमण किया जा सकता है। नवीन बनने वाली आदत के अनुसार पुरानी उस आदत में परिवर्तन भी संक्रमण का एक रूप है। जैसे - किसी व्यक्ति की प्रवृत्तिप्रकृति झूठ बोलने की थी । परन्तु वर्तमान में सत्संग से, स्वाध्याय आदि के कारण वह सत्य बोलता है। इससे पुरानी आदत नयी सत्य बोलने की आदत में बदल गई। इसी प्रकार कोई पहले सत्य बोलता था, परन्तु अब बात-बात में उसकी झूठ बोलने की आदत पड़ गई, इससे पुरानी आदत लुप्त होकर नई असत्य बोलने की आदत में बदल गई है। कामुकता को वत्सलता में, क्रोध को क्षमा में, अहंकार को नम्रता में, माया को सरलता में, लोभ को सन्तोष और शान्ति में, हिंसा को दया में, स्वार्थ को परमार्थ एवं परोपकार में, क्रूरता को करुणा में, तथैव अज्ञान को ज्ञान में परस्पर वर्तमान सजातीय प्रकृति के अनुरूप संक्रमित या परिवर्तित किया जा सकता है। मार्गान्तरीकरण भी संक्रमण के तुल्य है : कुछ उपयोगी तथ्य कुत्सित प्रकृतियों या प्रवृत्तियों को उदात्त प्रकृतियों या प्रवृत्तियों में संक्रमण या मार्गान्तरीकरण करने के लिए कुछ उपयोगी तथ्य उसके ह्रदय में ठसा देने आवश्यक हैं। कुछ महत्वपूर्ण तथ्य ये हैं - (१) भोगों में सुख क्षणिक, पराधीन, परिणाम में दुःखद, नीरस एवं अशान्तिजनक हैं, अतः क्षणिक सुखभोग का त्याग करके अपनी प्रवृत्ति आत्मसंयम में लगाना, स्व-सुखसामग्री या स्वसुख को दूसरों की निःस्वार्थ सेवा, परोपकार एवं वात्सल्य बढ़ाने में लगाना चाहिए। (२) दैनिक जीवन की घटनाओं तथा जगत् की वर्तमान भौतिक प्रवृत्तियों से होने वाले दुःखद परिणामों और उनके बदले सेवा, मानवता, परोपकार, अहिंसा, दया आदि से होने वाली सुखशान्ति एवं सन्तुष्टि की ओर ध्यान आकृष्ट किया जाए। (३) स्वार्थ साधन में दुःख, अशान्ति वैर विरोध, संघर्ष है। परमार्थ या परार्थ - साधन में सुख, शान्ति, सन्तोष, मैत्री एवं वात्सल्य आदि गुणों की वृद्धि है। १. कर्म सिद्धान्त ( कन्हैयालाल लोढ़ा) से भावांशग्रहण, पृ. २४ से २८ तक For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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