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________________ कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ-२ १३५ ___ संक्रमणकरण का सिद्धान्त प्रत्येक व्यक्ति के लिए आशास्पद और प्रेरक संक्रमण का यह सिद्धान्त स्पष्टतः प्रत्येक व्यक्ति के लिए आशास्पद एवं पुरुषार्थ प्रेरक है कि व्यक्ति पहले चाहे जितने दुष्कृतों (पापों) से घिरा हो, परन्तु वर्तमान में वह सत्कर्म कर रहा है, सद्भावना और सद्वृत्ति से युक्त है तो वह कर्मों के दु:खद फल से छुटकारा पा सकता है और उत्कृष्ट रसायन आने पर कर्मों से सदा-सदा के लिए छुटकारा पा सकता है। जैसे-तुलसीदास जी एक दिन कामुक वृत्ति के थे, अपनी पत्नी के पीहर चले जाने से, वे व्याकुल होकर वहाँ पहुँच गये, किन्तु वहाँ उनकी पत्नी की एक फटकार-(जेती प्रीत हराम में, तेती हर में होय। चला जाए बैकुण्ठ में, पल्ला न पकड़े को।।) से उनका जीवन बदल गया। वे कामुक तुलसीदास से गोस्वामी तुलीसदास बन गए। रामचरित मानस के निर्माण में अपनी वृत्ति, प्रवृत्ति और शक्ति लगा दी। वाल्मीकि, अर्जुन-माली, अंगुलिमाल, कपिल विप्र आदि के जीवन का रूपान्तर भी इसी संक्रमण के सिद्धान्त पर हुआ है। परन्तु इसके विपरीत अगर किसी व्यक्ति ने पहले अच्छे कर्म बांधे हो, किन्तु वर्तमान में वह दुष्प्रवृत्तियाँ अपनाकर बुरे (पाप) कर्म बांध रहा है तो पहले के पुण्य कर्म भी पापकर्म में बदल जाएंगे। फिर उनका कोई भी अच्छा व सुखद फल नहीं मिल सकेगा। अतः संक्रमणकरण द्वारा मनुष्य अपने जीवन का सदुपयोग या दुष्प्रयोग कर अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में या सौभाग्य को दुर्भाग्य में बदल सकता है। प्रत्येक व्यक्ति अपना भाग्य विधाता स्वयं ही है, भाग्य को बदलने में वह पूर्ण स्वाधीन है। ___ कर्मविज्ञान के नियमानुसार उद्वर्तना, अपवर्तना, उदीरणा और संक्रमण ये चारों ही करण या क्रियाएँ अनुदित (उदय में नहीं आए हुए) कर्म पुद्गलों में ही होते हैं। उदयावलिका में प्रविष्ट (उदयावस्था को प्राप्त) कर्म पुद्गलों में किसी प्रकार के परिवर्तन या संक्रमणादि नहीं हो सकते। () उपशमना (उपशम) करण : स्वरूप और कार्य · कर्मों की उदय, उदीरणा, निधत्ति और निकाचना, इन चारों ही क्रियाओं को अयोग्य कर देने को उपशम अवस्था कहते हैं। दूसरे शब्दों मे, कर्मों की सर्वथा अनुदय अवस्था को उपशप कहते हैं। इस अवस्था में प्रदेशोदय और विपाकोदय, इन दोनों प्रकार का उदय नहीं रहता। उपशम केवल मोहनीय कर्म का होता है, दूसरों का नहीं। उपशम अवस्था में उदित कर्म को उपशान्त कर दिया-भस्माच्छन्न १. कर्मसिद्धान्त (कन्हैयालाल लोढ़ा) से, भावांश ग्रहण, पृ. २८, २९ २. मोक्ष प्रकाश, पृ. १८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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