SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ - २ १२१ बन्धावस्था, सत्तावस्था और उदयावस्था में कर्मबन्ध से कर्ममुक्ति की दिशा में क्या-क्या और कैसा-कैसा पुरुषार्थ हो सकता है? यह हम पिछले निबन्ध में बता चुके हैं। यहाँ बन्ध की शेष सात अवस्थाओं का निरूपण करना अभीष्ट है। ( ४ ) उदीरणा-करणः स्वरूप, हेतु और पुरुषार्थवाद का प्रेरक उदय और उदीरणा में अन्तर, और उदीरणा का स्वरूप वैसे देखा जाए तो उदीरणा उदय का ही एक रूप है। उदय के ही दो भेद किन्हीं आचार्यों ने किये हैं- (१) प्राप्तकाल - उदय और (२) अप्राप्तकाल उदय । जिस उदय में कालावधि पूर्ण होने पर कर्म की वेदना या फलभोग प्रारम्भ होता है, वह प्राप्तकाल-कर्मोदय है। कालमर्यादा पूर्ण होने-उदय में आने से पूर्व ही, कर्मफल को भोग लेना यानी उदयावलिका में ले आना - उदीरणाकरण है। संक्षेप में उदय और उदीरणा में इतना ही अन्तर है कि नियत काल में कर्म का फल देना उदय कहलाता है, और नियतकाल से पूर्व कर्म का फल देना यानी कर्म का उदय में आना उदीरणा है। जैसे-आम बेचने वाले सोचते हैं कि वृक्ष पर तो आम समय आने पर ही पकेंगे, इसलिए वे उन्हें जल्दी पकाने के लिए आम के पेड़ में लगे हुए कच्चे हरे आमों को ही तोड़ लेते हैं, और उन्हें भूसे, पराल आदि में दबा देते हैं, जिससे वे जल्दी ही पक जाते हैं, इसी प्रकार जिन कर्मों का परिपक्व (उदय) काल न होने पर भी उन्हें उदय में खींच कर लाया जाता है, अर्थात् समता, शमता, क्षमा, परीषहजय, उपसर्गसहन, तपश्चर्या, प्रायश्चित्त आदि द्वारा उन्हें (उन पूर्वबद्ध कर्मों को) उदय में आने से पूर्व ही भोग लिया जाता है, उदयावलिका में नियत समय से पूर्व ही लाया जाता है, उसे उदीरणा कहते हैं । १ उदीरणा पुरुषार्थ की उद्योतिनी वस्तुतः देखा जाए तो उदीरणा पुरुषार्थ की प्रेरणादायिनी है। कर्म के स्वाभाविक उदय में नये पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं होती। बंन्ध की स्थिति या अबाधाकाल पूर्ण होते ही कर्मपुद्गल स्वतः उदय में आ जाते हैं । किन्तु उदीरणा के लिए नये पुरुषार्थ की भी आवश्यकता होती है। उदीरणा द्वारा विशिष्ट कर्मों को स्थिति क्षय से पहले ही उदय में लाया जाता है; इसलिए उदीरणा में विशेष पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। १. (क) पंचम कर्मग्रन्थ, प्रस्तावना (पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री), पृ. २४ (ख) बौद्ध दर्शन में भी दो प्रकार के कर्म बतलाए हैं - नियत - विपाककाल और अनियतविपाककाल। अनियतविपाककाल वाले कर्म ही उदीरणा के समान हैं। -सं. Jain Education International For Personal & Private Use Only " www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy